संसद को अगर खामोश कर दिया जाए, प्रेस खुद खामोश हो जाए, और न्यायपालिका की भूमिका स्पष्ट ना रह जाए, तो फिर लोकतंत्र के बारे में बुनियादी समझ पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है।
संसद में जो नजारा देखने को मिल रहा है, उसका एक ही संकेत है और वो यह- सरकार चाहती है कि या तो संसद में उसका जयगान हो या फिर सदस्य चुप रहें। सरकार को सवाल पसंद नहीं हैं। खास कर ऐसे मामलों पर तो बिल्कुल ही नहीं, जिसे वह अपने लिए संवेदनशील मानती है।
शुक्रवार को संसद टीवी जिस तरह अचानक म्यूट हो गया, वह रहस्यमय है। यह बात किसी के गले नहीं उतरती कि ठीक उस समय खामोशी छा गई, जब विपक्ष अपनी बात रख रहा था और यहां मांग उठ रही थी कि राहुल गांधी को बोलने दिया जाए। राहुल गांधी एक दिन पहले प्रेस कांफ्रेंस करके संसद में बोलने की अपनी इच्छा जता चुके थे। इसके लिए वे स्पीकर ओम बिड़ला से भी मिले थे और उनसे बोलने का समय मांगा था।
शुक्रवार को सामने यह आया कि स्पीकर का फैसला राहुल गांधी को ना बोलने देने का है। जबकि राहुल गांधी के इस तर्क में दम है कि जब मंत्रियों सहित भाजपा के कई नेताओं ने संसद में उनके खिलाफ भाषण दिया है, तो उन्हें संसद के मंच पर उसका जवाब देने का मौका दिया जाना चाहिए। यह आम संसदीय प्रक्रिया है। बहरहाल, आज आम प्रक्रियाओं की अपेक्षा करने का कोई शायद ही कोई आधार बचा है। अब प्रश्न यह है कि भारतीय लोकतंत्र को आज कैसे समझा जाए?
लोकतंत्र में संसद, न्यायपालिका और प्रेस की खास भूमिका होती है। संसद को अगर खामोश कर दिया जाए, प्रेस खुद खामोश हो जाए, और न्यायपालिका की भूमिका स्पष्ट ना रह जाए, तो फिर लोकतंत्र के बारे में बुनियादी समझ पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है। इसके क्या परिणाम हो सकते हैं, इसका अहसास सत्ता को है या नहीं, यह हमें नही मालूम।
लेकिन यह सबको याद रखना चाहिए कि अगर बुनियादी आम-सहमतियों के लिए जगह ना बचे, तो व्यवस्था में भले चुनाव होते रहें, लेकिन उसे लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता। यह बेजा नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के लोकतंत्र सूचकांक पर भारत का दर्जा लगातार गिरता जा रहा है- यहां तक कि फ्रीडम हाउस ने तो भारत उन देशों की श्रेणी में डाल दिया है, जहां आंशिक स्वतंत्रता ही बची है।