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08-04-2025 Vol 19

महिला कैदियों की बदहाली

महिला कैदियों की हालत पुरुष कैदियों से कहीं ज्यादा ज़्यादा खराब है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 2014-19 के बीच महिला कैदियों की संख्या 11.7 फीसदी बढ़ी। लेकिन सिर्फ 18 प्रतिशत को महिलाओं के लिए बनी विशेष जेलों में जगह मिली है।

आधुनिक न्याय व्यवस्था का सिद्धांत है कि सजा का मकसद अपराधियों को आत्म-ग्लानि का मौका देना और उन्हें सुधरने का पूरा अवसर उपलब्ध कराना है। बदले की भावना या क्रूरता के जरिए समाज में मिसाल कायम की सोच पुरातन या मध्य-युगीन परिपाटी है, जब तर्क एवं विवेक आधारित सभ्यता अविकसित अवस्था में थी। इसीलिए जिन देशों में आधुनिक न्याय व्यवस्था को अपनाया गया है, वहां जेलों में अधिक से अधिक मानवीय स्थिति बनाना जरूरी समझा जाता है। इस कसौटी पर भारत के अंतर्विरोध जग-जाहिर रहे हैं। सिद्धांतः अपने देश में आधुनिक न्याय व्यवस्था अपनाई गई है, लेकिन व्यवहार में हालात उलटे हैँ। महिला कैदियों के बारे में आई एक नई रिपोर्ट ने इसी धारणा की पुष्टि की है। रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि महिला कैदियों की हालत पुरुष कैदियों से कहीं ज्यादा ज़्यादा खराब है। इसमें बताया गया है कि 2014 से 2019 के बीच महिला कैदियों की संख्या 11.7 फीसदी बढ़ी। लेकिन सिर्फ 18 प्रतिशत को महिलाओं के लिए बनाई गई विशेष जेलों में जगह मिली है। 75 फीसदी महिला कैदियों को रसोई और शौचालय पुरुषों के साथ साझा करना पड़ता है।

जेलों की इस खराब स्थिति की तस्वीर जस्टिस अमिताव रॉय की अध्यक्षता वाली कमेटी की रिपोर्ट में सामने आई है। 2018 में सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने चिंता जताई थी कि कई राज्यों की जेलों में क्षमता से डेढ़ गुना ज़्यादा कैदी हैं। इसे मानवाधिकार हनन का गंभीर मामला बताते हुए तब कोर्ट ने यह कमेटी बनाई गई। तीन सदस्यों वाली इस कमेटी का मकसद यह जानना था कि भारतीय जेलों में क्या हालात हैं। कमेटी ने दिसंबर 2022 में अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी थी, लेकिन उसमें दिए गए निष्कर्ष अब मीडिया में आए हैं। इसके पहले एनसीआरबी की 2021 की रिपोर्ट से सामने आया था कि 21 राज्यों में महिलाओं के लिए अलग जेल तक नहीं है। उधर महिलाओं के खिलाफ जेल में हुए अपराध की शिकायते दर्ज करने की व्यवसथा सिर्फ 11 राज्यों में है। जब ये हाल हो, तो महिलाओं के लिए मासिक धर्म या गर्भावस्था में जरूरी सुविधाओं की अपेक्षा करना निराधार ही मालूम पड़ता है।

NI Editorial

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