मुमकिन है कि परिसीमन, एनईपी और भाषा विवाद पर डीएमके प्रमुख के बयानों की वजह अगले विधानसभा के चुनाव हों, जिसके लिए उन्होंने अभी से पैंतरेबाजी शुरू कर दी हो। मगर इसे सिर्फ चुनावी दायरे में देखना स्थिति से आंख मूंदना होगा।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन की चेतावनियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह देश में चौड़ी हो रही विभाजन-रेखाओं की एक मिसाल है। स्टालिन ने 2026 में लोकसभा सीटों के संभावित परिसीमन को पूरे दक्षिण भारत की आवाज दबाने की कोशिश बताया है। उन्होंने इस मुद्दे पर पांच मार्च को 40 राजनीतिक दलों की बैठक बुलाई है। इसके पहले स्टालिन कह चुके हैं कि तमिलनाडु नई शिक्षा नीति (एनईपी) से खुद को अलग करने को तैयार है। मुमकिन है, स्टालिन ने इन बयानों की वजह अगले विधानसभा के चुनाव हों, जिसके लिए उन्होंने अभी से पैंतरेबाजी शुरू कर दी हो। मगर इसे सिर्फ चुनावी दायरे में देखना बनी स्थिति से आंख मूंदना होगा।
राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति में राज्य सरकारों की भूमिका खत्म करने संबंधी आदेश ने सभी विपक्ष शासित राज्यों असंतोष पैदा किया है। प्रस्तावित परिसीमन पहले से दक्षिण राज्यों में मुद्दा बना हुआ है। उन राज्यों की शिकायत है कि परिसीमन के दौरान लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व घट सकता है। ये राज्य इस आशंका को मानव विकास के पैमानों पर बेहतर प्रदर्शन की ‘सज़ा’ के रूप में देखते हैं। स्टालिन ने कहा है कि जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण में कामयाबी का परिणाम यह होगा कि लोकसभा में तमिलनाडु की सीटें 39 से घट कर 31 हो जाएंगी। यहां ये याद करना अहम होगा कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू इसी आशंका के मद्देनजर राज्य के लोगों से अधिक बच्चे पैदा करने का आह्वान कर चुके हैं।
स्टालिन ने उपरोक्त दोनों मुद्दों के साथ हिंदी थोपने की शिकायत को भी जोड़ दिया है। भाषा विवाद तमिलनाडु में ठंडा पड़ता गया था, मगर ये चिंगारी कभी वहां बुझी नहीं। देश के मौजूदा माहौल में इसके फिर गरमाने के संकेत हैं। कर्नाटक के बेलागवी में जिस तरह कन्नड़ और मराठी बोलने के सवाल पर झड़प हुई, जिसके परिणामस्वरूप कर्नाटक और महाराष्ट्र को अंतरराज्यीय बस सेवाएं रोकनी पड़ीं, वह भाषा विवाद में निहित चिंगारी की ही एक मिसाल है। इसलिए तमिलनाडु में बन रहे हालात को गंभीरता से लेने और आम-सहमति की भावना से मसले को हल करने की जरूरत है।