यह तो तय है कि न्याय व्यवस्था पैदा हुई इस खामी का नतीजा आम नागरिक को भुगतना पड़ रहा है। इससे आधुनिक न्याय के इस सिद्धांत का खुला उल्लंघन हो रहा है कि जेल अपवाद और बेल नियम होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर दुख जताया है कि उसके इस आदेश का हाई कोर्ट और निचली अदालतें पालन नहीं कर रहे हैं कि साधारण आरोपों में जेल में रखे गए व्यक्तियों की जमानत अर्जी का अपेक्षित से निपटारा नहीं कर रही हैं, जबकि सर्वोच्च न्यायालय इस संबंध में स्पष्ट निर्देश जारी कर चुका है। इसका नतीजा यह हो रहा है कि बड़ी संख्या में सुप्रीम कोर्ट को जमानत अर्जियों की सुनवाई करनी पड़ रही है। कोर्ट ने कहा कि ऐसी कम से कम 40 फीसदी अर्जियां होती हैं, जिनका निपटारा निचले स्तर पर ही हो जाना चाहिए था। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने सजायाफ्ता कैदियों को माफी देने संबंधी उसके आदेश को लटकाए रखने के गुजरात सरकार के नजरिए पर सवाल खड़ा किया। ये दोनों मुद्दे देश की न्याय व्यवस्था के लिए गंभीर चिंता के पहलू हैं। इनसे प्रश्न उठा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट इतना लाचार हो गया है कि वह अपने आदेशों का पालन करवाने में खुद को अक्षम महसूस कर रहा है?
यह तो तय है कि न्याय व्यवस्था पैदा हुई इस खामी का नतीजा आम नागरिक को भुगतना पड़ रहा है। इससे आधुनिक न्याय के इस सिद्धांत का खुला उल्लंघन हो रहा है कि जेल अपवाद और बेल (जमानत) नियम होना चाहिए। मगर सुप्रीम कोर्ट के लिए यह आत्म निरीक्षण का विषय है कि क्या हालात को यहां तक पहुंचाने में खुद उसकी भी कोई भूमिका है? ताजा उदाहरण उमर खालिद की जमानत अर्जी का है, जिस पर सुनवाई हफ्ते-दर-हफ्ते टलती जा रही है। मंगलवार को इसे फिर चार हफ्तों के लिए टाल दिया गया। मुद्दा यह है कि अगर युवा नेता उमर खालिद जमानत पाने योग्य नहीं हैं, तो उनकी अर्जी खारिज कर दी जाती। मगर जब देश का सर्वोच्च अदालत एक जमानत अर्जी को महीनों तक लटकाए रखेगा, तो बाकी अदालतों के लिए क्या संदेश जाएगा? अर्णब गोस्वामी के मामले में कोर्ट ने कहा था कि किसी की निजी स्वतंत्रता के हनन को एक दिन के लिए भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। क्या कोर्ट यह सिद्धांत सभी मामलों पर समान रूप से लागू कर रहा है?