ताजा घटनाओं का संकेत है कि मणिपुर दुश्चक्र में फंस हुआ है। इसका प्रशासनिक हल निकलने की गुंजाइश काफी सिकुड़ चुकी है। संकेत हैं कि कुकी समुदाय में सत्ताधारी दल को लेकर कुछ खास तरह की आशंकाएं हैं। बेहतर होगा, केंद्र इसे समझे।
मणिपुर में बीरेन सिंह सरकार को हटा कर राष्ट्रपति शासन लागू होने से जगी उम्मीदें धूल में मिल गई हैं। इस परिवर्तन को संकेत समझा गया था कि केंद्र ने मणिपुर में दो नस्लीय समुदायों में चौड़ी हुई खाई को पाटने की जरूरत समझी है। पूर्व मुख्यमंत्री ने खुद को मैतेई समुदाय से इतना जोड़ लिया था कि कुकी समुदाय का उनमें विश्वास जगना नामुमकिन हो गया। उन्हें हटाने के बाद अपेक्षित था कि केंद्र दोनों समुदायों के बीच आपसी विश्वास भरोसा पैदा करने की पहल करता। इसके लिए दोनों से संवाद कर उनकी शिकायतों को समझना पहला कदम होता।
मगर केंद्र की पहल राष्ट्रपति शासन करने से आगे नहीं बढ़ी। उसके बाद गृह मंत्री अमित शाह ने सुरक्षा बलों को कुकी इलाकों में आठ मार्च से मुक्त परिवहन सुनिश्चित करने का आदेश दे दिया। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसे जख्मों पर महरम का मौका बनाने के बजाय मैतेई संगठनों ने आठ मार्च को ही कुकी बहुल इलाकों में शांति मार्च के नाम पर अपनी शक्ति दिखाने का फैसला किया। नतीजा नए सिरे से हिंसा भड़कना है। एक व्यक्ति की मौत के बाद कुकी संगठनों ने अपनी बहुलता वाले इलाकों में परिवहन की आवाजाही रोकने की घोषणा की है। नतीजतन, बात घूम-फिर कर जहां से चली थी, वहीं पहुंच गई है।
ताजा घटनाओं का संकेत है कि मणिपुर एक दुश्चक्र में फंस चुका है। इसका सिर्फ प्रशासनिक उपायों से हल निकलने की गुंजाइश काफी सिकुड़ चुकी है। वहां से साफ संकेत हैं कि कुकी समुदाय में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को लेकर कुछ खास तरह की आशंकाएं गहराई हुई हैं। बेहतर होगा, केंद्र और भाजपा इसे समझें। आवश्यकता यह है कि प्रशासनिक पहल से पहले जन संपर्क और जन संवाद का व्यापक अभियान चलाया जाए। दोनों समुदायों में यह समझ लौटाना अनिवार्य है कि उनके हित शांति और सद्भाव कायम होने से जुड़े हैं और वे एक दूसरे के दुश्मन नहीं हैं। केंद्र इस दिशा में पहल करे, तो उसे उसकी कमजोरी या नरमी का संकेत नहीं माना जाएगा, बल्कि इससे अपनी लोकतांत्रिक जवाबदेही के प्रति उसके जागरूक होने का संदेश जाएगा।