Wednesday

23-04-2025 Vol 19

मणिपुर की व्यथा-कथा

मणिपुर दुर्दशा के किस गर्त में जा चुका है, उसका अंदाजा वैसे तो रोजमर्रा की खबरों से भी लगता है, पर अब मणिपुर हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणियों से संवेदनशील लोगों का ध्यान फिर से उस तरफ गया है।

मणिपुर के हिंसा के आगोश में गए 14 महीने पूरे होने वाले हैं। इस बीच केंद्र सरकार की उपेक्षा और राज्य सरकार के एकतरफा नजरिए से राज्य दुर्दशा के किस गर्त में जा चुका है, उसका अंदाजा वैसे तो रोजमर्रा की खबरों से भी लगता है, पर अब मणिपुर हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणियों से संवेदनशील लोगों का ध्यान फिर से उस तरफ गया है। जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल ने अपनी बात कहने के लिए एक राष्ट्रीय अखबार को इंटरव्यू देने की जरूरत महसूस की, यही तथ्य मणिपुर में जारी हालात की एक झलक है। इंटरव्यू के दौरान जस्टिस मृदुल ने न्यायिक आदेशों पर अपनी सुविधा से अमल करने के राज्य सरकार के रवैये पर घोर असंतोष जताया। राज्य में हिंसा की स्थिति को ‘अभूतपूर्व’ बताते हुए उन्होंने उन चुनौतियों का विस्तार से जिक्र किया, जिनका सामना न्यायिक व्यवस्था को करना पड़ रहा है। सामुदायिक टकराव, न्यायिक अधिकारियों की पोस्टिंग, न्याय व्यवस्था पर अमल के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे की कमी आदि प्रश्नों पर जस्टिस मृदुल ने बेलाग अपनी बात कही। इनसे मणिपुर की भयानक सूरत सामने आती है।

न्यायमूर्ति ने बताया कि आज मणिपुर में बहुसंख्यक मैतेई समुदाय के व्यक्तियों की पोस्टिंग कुकी समुदाय की बहुलता वाले इलाकों मे करना नामुमकिन हो गया है। इस कारण न्यायपालिका के लिए सामान्य ढंग से काम करने की स्थिति नहीं रह गई है। स्पष्टतः ऐसे हालात को राजनीतिक नजरिए से ना देखा जाए, तो सीधा निष्कर्ष निकलेगा कि राज्य में संवैधानिक व्यवस्था ढह चुकी है। उस हाल में राष्ट्रपति शासन लागू करना केंद्र की जिम्मेदारी बन जाती है। मगर केंद्र की भाजपा सरकार खुद दलगत नजरिए का शिकार रही है। संकट के पूरे में दौर वह राज्य सरकार के सरंक्षक की भूमिका में नजर आई है। मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह ने हाल में कहा कि अब हालात सुधर सकते हैं, क्योंकि केंद्र मणिपुर को प्राथमिकता दे रहा है। यह बयान खुद इस बात की तस्दीक है कि अब तक मणिपुर उसकी प्राथमिकता नहीं रहा है। तो क्या उन हालात के लिए मुख्य रूप से केंद्र ही जिम्मेदार नहीं ठहरता है, जिनका विवरण जस्टिस मृदुल ने दिया है?

NI Editorial

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