Wednesday

23-04-2025 Vol 19

इंडोनेशिया में निरंतरता

नव- निर्वाचित राष्ट्रपति 72 वर्षीय प्राबोवो सुबियांतो इस समय देश के रक्षा मंत्री हैं। वे पूर्व सैनिक जनरल हैं। इसके अलावा उनकी एक और पहचान पूर्व सैनिक तानाशाह सुहार्तो के पूर्व दामाद के रूप में भी है।

इंडोनेशिया के राष्ट्रपति चुनाव में प्राबोवो सुबियांतो की जीत में आरंभ से ही कोई शक नहीं था। चुनाव नतीजे ने उनके देश का अगला राष्ट्रपति बनने पर मुहर लगा दी है। इस पद पर सुबियांतो के आने के साथ 17 हजार से अधिक द्वीपों से बने और सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाले इस देश में पारंपरिक शासक वर्ग सत्ता पर सीधे पुनर्स्थापित हो जाएगा। 2014 में बाहरी समझे जाने वाले जोको विडोडो ने चुनाव जीत तक यह उम्मीद जताई थी कि देश में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की का नया माहौल बनेगा। लेकिन जल्द ही विडोडो को यह अहसास हो गया कि सत्ता का टिकाऊ बनाने के लिए उन्हें पारंपरिक प्रभावशाली समूहों के साथ मिलकर चलना होगा। इस तरह उन्होंने जिन सुबियांतो को चुनाव में हराया था, उनसे हाथ मिला लिया। इस समय 72 वर्षीय सुबियांतो देश के रक्षा मंत्री हैं। वे पूर्व सैनिक जनरल हैं। इसके अलावा उनकी एक और पहचान पूर्व सैनिक तानाशाह सुहार्तो के पूर्व दामाद के रूप में भी है। जाहिर है, उनके प्रभाव की जड़ें गहरी हैं। इस बार के चुनाव में उन्होंने विडोडो के बेटे जिब्रान को उप-राष्ट्रपति का उम्मीदवार लिया था। इस तरह उनके अपने प्रभाव के साथ विडोडो की लोकप्रियता का भी साथ जुड़ गया।

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विडोडो ने अपने दस साल के शासनकाल में खासकर आर्थिक नीतियों में कई नई पहल की। उनके राष्ट्रपति बनने के पहले तक इंडोनेशिया मुख्य रूप से कच्चे खनिजों- खासकर निकेल का निर्यात करता था। विडोडो ने देश के औद्योगीकरण पर ध्यान दिया। इस तरह देश शोधित खनिजों का निर्यात करने लगा। इससे विदेशी मुद्रा की आय बढ़ी। विडोडो ने अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा के बीच तटस्थ रुख अपनाया और चीनी कंपनियों को देश में कई ठेके दिए। उनमें बहुचर्चित हाई स्पीड रेल सेवा निर्माण का ठेका भी है। यह रेल सेवा चालू हो चुकी है। संभावना है कि सुबियांतो इन नीतियों को जारी रखेंगे। वैसे अंतरराष्ट्रीय दायरे में उनके सामने एक कड़ी चुनौती अपनी पूर्व छवि से उबरने की होगी। सुबियांतो पर सैनिक जनरल के बतौर 1998 में छात्र कार्यकर्ताओं को अगवा करने के साथ-साथ पापुआ और पूर्वी तिमोर में मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप रहे हैं।

NI Editorial

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