भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत है, जैसे जुमले आज अपने-आप में एक बड़ी समस्या बन गए हैं। वास्तविकता पर ध्यान देने, समस्याओं को समझने और फिर उनका समाधान ढूंढने की राह में ये एक बड़ी रुकावट बने हुए हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था के सबसे चमकते किले में अब सेंध लग गई है। पांच साल से चमक रहे शेयर बाजार में गिरावट बेरोक होती जा रही है। इससे छोटे और मझौले सहित तमाम किस्म के निवेशकों के लाखों करोड़ रुपये हवा हो गए हैं। इसके साथ डॉलर की तुलना में रुपये की लगातार गिरती कीमत को भी जोड़ दें, तो इस सेंध की मार और भी गहरी मालूम पड़ेगी। इस घटनाक्रम ने चमकते और आगे बढ़ते भारत के नैरेटिव पर तगड़ा प्रहार किया है। सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर पहले ही सुस्त हो चुकी है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही (अक्टूबर- दिसंबर 2024) में जीडीपी वृद्धि दर 6.2 फीसदी रही।
यह दूसरी तिमाही से ज्यादा है, इसके बावजूद इस वित्त वर्ष में वृद्धि दर 6.5 प्रतिशत के आसपास ही रहने का अनुमान है। अब वरिष्ठ अधिकारियों से यह सुनना दिलचस्प है कि महाकुंभ के कारण हुई यात्राओं एवं करोड़ों लोगों के इससे संबंधित अन्य खर्च की वजह से संभव है कि चौथी तिमाही में वृद्धि दर में भारी उछाल आ जाए। जिस अर्थव्यवस्था में ग्रोथ की उम्मीदें ऐसे आयोजनों पर आ टिकी हों, समझा जा सकता है कि वहां वास्तविक आर्थिक चक्र की क्या असलियत होगी! फिर भी सरकारी एवं कॉरपोरेट सेक्टर के अधिकारी धार्मिक भावना जैसी आस्था से यह कहते सुने जाते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत है।
इसका क्या अर्थ है, वे यह नहीं बताते। जब सीमित उपभोक्ता वर्ग का निजी उपभोग भी गिर रहा हो और निवेश-उत्पादन एवं बिक्री के चक्र से जुड़ी कंपनियां मांग ना बढ़ने की समस्या से जूझ रही हों, तो फिर बुनियाद का वो कौन-सा पहलू है, जिसे मजबूत बता दिया जाता है? हकीकत यह है कि ऐसे जुमले आज अपने-आप में एक बड़ी समस्या बन गए हैं। ये वास्तविकता पर ध्यान देने, समस्याओं को समझने और फिर उनका समाधान ढूंढने की राह में एक बड़ी रुकावट हैं। चूंकि असल मसलों पर बात ही नहीं होती, तो फिर उन मसलों का हल कैसे निकलेगा? ये रुझान अब भी नहीं बदल रहा है, जब बचे-खुचे क्षेत्र भी प्रभावित होने लगे हैं।