“भारत में ऐसी मध्यम- आकार की कंपनियां पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, जो अपने को बड़ी कंपनी बना सकने की स्थिति में हों, जबकि एमएसएमई का विकास विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने के लिए यह निर्णायक महत्त्व का है।”
नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रह्मण्यम की इस टिप्पणी पर ध्यान दीजिएः ‘कभी-कभी जब मैं भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में सोचता हूं, तो मुझे चिंता होती है। हमारे यहां बड़ी संख्या में बड़ी कंपनियां हैं। जबकि मझौली कंपनियों की संख्या बड़ी कंपनियों से भी कम है। वैसी स्थिति में आर्थिक वृद्धि कहां से हासिल होगी? यह स्थिति संस्थागत, ढांचागत रूप लिए हुए है।’ सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) के लिए एक नई पहल की शुरुआत के मौके पर उन्होंने अफसोस जताया कि भारत में ऐसी मध्यम- आकार की कंपनियां पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, जो अपने को बड़ी कंपनी बना सकने की स्थिति में हों, जबकि एमएसएमई का विकास विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने के लिए यह निर्णायक महत्त्व का है।
एमएसएमई सेक्टर बदहाल है और इसकी वजह ढांचागत है, इस हकीकत पर सरकारी हलके के किसी बड़े अधिकारी की तरफ से यह शायद सबसे स्पष्ट स्वीकारोक्ति है। ये हाल क्यों है? इससे जानने के लिए किसी गहन शोध की जरूरत नहीं है। संसद की लोक लेखा समिति ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में जीएसटी संबंधी प्रक्रियाओं को इसका बड़ा कारण माना है। वैसे तह में जाया जाए, तो एमएसएमई क्षेत्र की मुसीबत की कुछ वजहें सरकारी नीतियों और कदमों में तलाशी जा सकती हैं। उनमें एक खास कदम नोटबंदी था।
अब शायद ही इस पर कोई संदेह बचा हो कि नोटबंदी ने इस क्षेत्र की जो कमर टूटी, वह आज तक दुरुस्त नहीं हो सकी है। इन तथ्यों को याद करना इसलिए जरूरी है कि जब तक इन कारणों से उपजी समस्याओं का हल नहीं सोचा जाता, कोई ऊपरी पहल एमएसएमई सेक्टर को उबार नहीं सकती। मध्यम अर्थव्यवस्था के बदहाल होने का नतीजा बढ़ी गैर-बराबरी के रूप में आया है। किसी बाजार के खुशहाल होने की पहली शर्त मध्य वर्ग का विस्तार और इस तबके के एक हिस्से का धनी तबके में अनवरत शामिल होना होता है। लेकिन यही क्रम ठहर गया है। सरकार इससे खुद के बेखबर होने का दिखावा करती रही है। मगर सरकारी अधिकारी इसे महसूस करते हैं, यह बात सुब्रह्मण्यम की टिप्पणी से जाहिर हुई है।