नेपाल में राजतंत्र की वापसी की मांग उठी है। सवाल वही है, जो अनेक लोकतांत्रिक देशों में है। राजनीतिक लोकतंत्र लोगों के आर्थिक मसलों और सामाजिक सवालों को हर नहीं पाता, तो आम जन की उसमें कब तक दिलचस्पी बनी रह सकती है?
अभी 20 साल हुए, जब बड़ी जन क्रांति ने नेपाल में राजशाही को पलट कर लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त किया था। लेकिन आज सूरत यह है कि जिन महाराज ज्ञानेंद्र को तब हटाया गया, आज देश का एक बड़ा जनमत उनकी वापस की मांग करने लगा है। वैसे तो बदलते मूड का संकेत कई वर्षों से मिल रहा था, मगर इस हफ्ते ज्ञानेंद्र का काठमांडू के हवाई अड्डे पर जैसा स्वागत हुआ, उसने बरबस बाहरी दुनिया का ध्यान भी खींचा है। ज्ञानेंद्र के स्वागत में हजारों लोग वहां पहुंचे। उन्होंने ‘महाराज लौटो, देश बचाओ’ जैसे नारे लगाए। लोगों ने मीडियाकर्मियों से जो कहा, उस पर ध्यान देना चाहिए।
मसलन, एक 43 वर्षीय शिक्षक ने कहा- ‘देश में अस्थिरता है, महंगाई है, लोग बेरोजगार हैं, गरीब भूखों मर रहे हैं। कानून आम नागरिकों पर लागू होता है, लेकिन राजनेताओं पर नहीं। इसीलिए हम चाहते हैं कि राजा लौटें।’ फैल रही इस राय का अंदाजा 77 वर्षीय ज्ञानेंद्र शाह को भी है। हाल तक नेपाल की राजनीति के बारे में बोलने से बचते रहे ज्ञानेंद्र ने बीते फरवरी में राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर एक बयान जारी कर कहा- ‘अब समय आ गया है। हम अपने देश और राष्ट्रीय एकता को बचाना चाहते हैं, तो मैं सभी देशवासियों से नेपाल की समृद्धि और प्रगति के वास्ते अपील करता हूं कि वे हमारा समर्थन करें।’
सत्ता में लौटने की महत्त्वाकांक्षा का इससे स्पष्ट बयान और क्या हो सकता है! ऐसा सचमुच होने की कितनी संभावना है, यह दीगर बात है। असल मुद्दा राजनीतिक दलों से हुए मोहभंग का है। जन क्रांति का नेतृत्व करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां अनेक खेमों में बंट कर सत्ता के समीकरण बैठने में इतनी मशगूल हैं कि उन्हें जमीन पर होते बदलाव का अंदाज नहीं है। यही हाल नेपाली कांग्रेस का है। नतीजा, जन हितों की उपेक्षा और उससे उपजा असंतोष है। सवाल वही है, जो अनेक लोकतांत्रिक देशों में है। राजनीतिक लोकतंत्र लोगों के आर्थिक मसलों और सामाजिक सवालों को हर नहीं पाता, तो आम जन की उसमें कब तक दिलचस्पी बनी रह सकती है?