ताजा चुनाव नतीजों से कांग्रेस के सामने आत्म-मंथन के गहरे प्रश्न आए हैं। जातीय पहचान की जिस राजनीति को उसके नेतृत्व ने अपनाया है, क्या उससे असल में नुकसान हो रहा है? फिलहाल, यह रास्ता उसे किसी मंजिल तक ले जाता नहीं नजर आता है।
जातीय और मजहबी पहचान की राजनीति में भाजपा का कोई तोड़ नहीं है, हरियाणा विधानसभा के चुनाव नतीजों ने यह बात फिर साबित की है। वैसे देखा जाए, तो इस नजरिए जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणाम को भी काफी हद तक समझा जा सकता है। हरियाणा में भाजपा ने ओबीसी और उन जातियों को गोलबंद करने पर ध्यान दिया, जिनका जाट समुदाय से अंतर्विरोध रहता है। कांग्रेस का सारा नैरेटिव चूंकि किसान, पहलवान और जवान पर केंद्रित रहा- जिसका सीधा संबंध जाट समुदाय से बनता है- तो भाजपा के लिए अन्य जातियों को गोलबंद करना और आसान हो गया। इसके अलावा दलितों के वर्गीकरण संबंधी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी उसने राज्य की परिस्थितियों के मुताबिक प्रभावी इस्तेमाल किया।
हिंदुत्व के एजेंडे पर बने उसके वोट बैंक में लोकसभा चुनाव में भी सेंध नहीं लगी थी। उस चुनाव में उसे 46 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस को 44 प्रतिशत। सीटें दोनों में 5-5 जरूर जीती थीं। इन ठोस हालात के बीच कांग्रेस नेताओं ने अपनी जीत को कैसे आसान मान लिया, यह आश्चर्यजनक है। चुनाव नतीजे आने के साथ यह गलतफहमी मुंह के बल गिरी है। उधर जम्मू-कश्मीर में चुनाव परिणाम इलाकाई विभाजन को गहरा बनाते दिख रहे हैं। कश्मीर घाटी में एकतरफा नेशनल कांफ्रेंस- कांग्रेस- सीपीएम गठबंधन के पक्ष में जनमत जाहिर हुआ। जबकि जम्मू क्षेत्र में उलटी कहानी रही। कांग्रेस यहां भाजपा के हिंदुत्व वोट बैंक में ज्यादा सेंध नहीं लगा पाई।
तो इस राज्य में भी संकेत हैं कि मजहबी और इलाकाई पहचान निर्णायक साबित हुए। गठबंधन के घटक के तौर पर इन नतीजों पर कांग्रेस भले संतोष कर ले, लेकिन पार्टी के रूप में उसके लिए यहां भी नतीजे निराशाजनक हैं। इन दोनों नतीजों से कांग्रेस के आत्म-मंथन के गहरे प्रश्न सामने आए हैं। उसे विचार करना है कि जातीय पहचान की जिस राजनीति को उसके नेतृत्व ने अपनाया है, क्या उससे असल में नुकसान हो रहा है? अगर इसके जरिए रोजी-रोटी के सवालों से मुंह मोड़ कर वैकल्पिक नीति पेश करने की जिम्मेदारी से बचने का रास्ता उसने सोचा है, तो यह तरीका हानिकारक साबित हो रहा है।