मोदी सरकार को विश्वसनीय आंकड़ों से खास गुरेज है। दशकीय जनगणना तक उसकी प्राथमिकता में नहीं है, तो आंकड़ों के प्रति उसके अपमान भाव को सहज ही समझा जा सकता है। जबकि ऐसे आंकड़े सामने हों, तो रैंकिंग्स का सच-झूठ खुद जाहिर हो जाएगा।
पिछले हफ्ते ग्लोबल हंगर इंडेक्स जारी हुआ। हर साल की तरह भारत में यह राजनीतिक विवाद का मुद्दा बना। हालांकि इस बार भारत की रैंकिंग में कुछ सुधार दिखा- भारत 111वें से 105वें स्थान पर चला आया- मगर यह रैंक भी बहुत नीचे है, इसलिए यह इंडेक्स नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने का फिर से औजार बना। मोदी सरकार का नजरिया ऐसी रिपोर्टों को सिरे से खारिज कर देने का रहा है। सरकार ऐसे सूचकांकों के लिए आंकड़े इकट्ठे करने के तरीके पर सवाल खड़े करती है। जबकि ऐसा नहीं है कि उसे ऐसे हर इंडेक्स से गुरेज हो। जिन रैंकिंग्स में भारत की बेहतर सूरत दिखे, उसका इस सरकार द्वारा धुआंधार प्रचार भी किया जाता है। अपने आरंभिक वर्षों में विश्व बैंक के ईज ऑफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग में भारत का दर्जा उछलने को उसने अपनी खास उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया था।
लेकिन जल्द ही विशेषज्ञों ने उस सूचकांक की खामियां स्पष्ट कर दीं। भारत सहित कई देशों पर उसे को सुनियोजित ढंग से प्रभावित करने के आरोप लगे। विवाद इतना बढ़ा कि विश्व बैंक ने वह सूचकांक तैयार करना ही छोड़ दिया। उधर गुजरे दस साल में मानव विकास एवं लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं संबंधी तमाम सूचकांकों पर भारत की बदतर तस्वीर उभरी है। वैसे विशेषज्ञ भी मानते हैं कि कई सूचकांक गहन शोध पर आधारित नहीं होते। वे फैलते गए एनजीओ कल्चर का हिस्सा हैं। फंडिंग जरूरतों को पूरा करने के लिए एनजीओ इन्हें हर साल जल्दबाजी में तैयार कर देते हैं।
मगर हकीकत यह भी है कि इन सूचकांकों को दुनिया भर के मीडिया में खूब प्रचार मिलता है। देशों की छवि इनसे बनती बिगड़ती है। तो हल क्या है? समाधान यह है कि भारत अपने हर क्षेत्र के बारे में विश्वसनीय स्रोतों से प्राप्त आंकड़े खुद जारी करे। मगर मोदी सरकार को ऐसे आंकड़ों से खास गुरेज रहा है। दशकीय जनगणना तक उसकी प्राथमिकता में नहीं है, तो विश्वसनीय आंकड़ों के प्रति उसके अपमान भाव को सहज ही समझा जा सकता है। जबकि ऐसे आंकड़े सामने हों, तो उनकी रोशनी में रैंकिंग्स का सच-झूठ खुद जाहिर हो जाएगा।