मुद्दा यह है कि जब कोई अपनी मांग मनवाने के लिए भूख हड़ताल का तरीका अपनाता है, तो सरकार का क्या दायित्व है? ये बात बिल्कुल तार्किक है कि हर मांग नहीं मानी जा सकती। तो फिर सरकार को क्या करना चाहिए?
किसान नेता जगजीत सिंह दल्लेवाल की भूख हड़ताल पर सुनवाई करते समय सुप्रीम कोर्ट दुविधा में दिखा है। उसने अनशन खत्म कराने की जिम्मेदारी पंजाब सरकार पर डाली, जबकि दल्लेवाल के संयुक्त किसान मोर्चे की मांगें केंद्र से हैं। मुद्दा यह उठा है कि जब कोई व्यक्ति अपनी मांग मनवाने के लिए भूख हड़ताल का तरीका अपनाता है, तो सरकार का क्या दायित्व बनता है? ये बात बिल्कुल तार्किक है कि हर मांग कोई सरकार नहीं मान सकती। तो फिर क्या उसे जबरन उस व्यक्ति की हड़ताल तुड़वानी चाहिए या उसे अपना बलिदान देने के लिए छोड़ देना चाहिए? अतीत के फैसलों में सर्वोच्च न्यायालय कह चुका है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में अनशन ऐतिहासिक एवं कानूनी रूप से प्रतिरोध का एक मान्य तरीका है।
यह असहमति जताने का तरीका भी है, जिसका स्रोत महात्मा गांधी के सत्याग्रह में है। इसे सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरा नहीं समझा जा सकता। बहरहाल, गौरतलब है कि गांधीजी ने कभी सत्ता से मांग मनवाने के लिए भूख हड़ताल नहीं की। हर बार उन्होंने या तो अपने समर्थकों को ‘अनुशासित’ करने या ‘आत्म-शुद्धि’ के लिए अनशन किया। आजाद भारत में पोट्टि श्रीरामुलु ऐसी मिसाल हैं, जिन्होंने तेलुगू भाषियों के लिए अलग राज्य की मांग के समर्थन में भूख हड़ताल पर बैठे हुए जान दे दी थी। उनके अलावा भी कई व्यक्तियों ने लंबे अनशन किए गए हैँ। अब दल्लेवाल 42 दिन से भूख हड़ताल पर हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने उनसे मिलने के लिए एक समिति भेजी है। मगर जब मांग केंद्र से है और वह बात के लिए आगे नहीं आया है, तो कोर्ट की पहल कितनी कारगर होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। फिर भी कहा जाएगा कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संवेदनशीलता का परिचय दिया है। विवाद में अपनी भूमिका ना होने के बावजूद उसने पहल की है। इस मामले में उसका असमंजस दरअसल समाज के पूरे विवेकशील हिस्से की दुविधा है। इस तरीके पर आखिर क्या रुख होना चाहिए? आवश्यकता राजनीतिक संघर्षो में ऐसे चरम तरीके के इस्तेमाल पर समग्र बहस की है। बेहतर होगा, तमाम सामाजिक- राजनीतिक संगठन पर आम सहमति बनाएं।