चयन समिति में अपने बहुमत से मनपसंद अधिकारियों की नियुक्ति करने के बजाय केंद्र अगर विपक्षी नेताओं से इस बारे में व्यापक राय-मशविरा करता, तो निर्वाचन आयोग के बारे में पैदा हुए संदेहों को दूर करने की गुंजाइश पैदा हो सकती थी।
नए मुख्य निर्वाचन अधिकारी (सीईसी) की नियुक्ति में सरकार ने फिर अपनी इच्छा चलाई। विपक्ष से सहमति बनाने की कोशिश उसने नहीं की। उसकी आपत्तियों को सिरे से खारिज कर दिया। इस तरह अब तक निर्वाचन आयुक्त रहे ज्ञानेश कुमार को सीईसी और हरियाणा के मुख्य सचिव विवेक जोशी को नया निर्वाचन आयुक्त बना दिया गया है। इससे फिर स्पष्ट हुआ है कि नरेंद्र मोदी सरकार को निर्वाचन आयोग की साख कोई चिंता नहीं है। मुमकिन है कि निर्वाचन आयोग लगातार स्वतंत्र, निष्पक्ष और स्वच्छ ढंग चुनाव करा रहा हो।
फिर भी, जैसाकि इंसाफ के सिलसिले में कहा जाता है, न्याय ना सिर्फ होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। उसी तरह यह अनिवार्य है कि ना सिर्फ स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव हों, बल्कि इस प्रक्रिया में हित रखने वाले सभी पक्षों को ऐसा होने का भरोसा भी बना रहे। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हाल के वर्षों में यह विश्वास क्षीण होता गया है। धारणा बन गई है कि भारत में चुनाव में भागीदार सभी दलों और प्रत्याशियों के लिए समान धरातल मौजूद नहीं है। ऐसा होने के पीछे एक कारण यह भी है कि निर्वाचन आयोग ने ऐसी धारणाओं की तनिक चिंता नहीं की है। बल्कि इस संबंध में उठे प्रश्नों को वह ना सिर्फ सिरे से खारिज करता रहा है, बल्कि सवाल उठाने वाले पक्षों के खिलाफ उसका रुख आक्रामक दिखा है।
इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखें, तो सीईसी राजीव कुमार के रिटायर होने के साथ मौका आया था, जब केंद्र ऐसी धारणाओं को तोड़ने की गंभीर पहल करता। विपक्ष चाहता था कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने तक नए सीईसी की नियुक्ति टाल दी जाए, तो उसे स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं था। साथ ही चयन समिति में अपने बहुमत से मनपसंद अधिकारियों की नियुक्ति करने के बजाय वह विपक्षी नेताओं से इस बारे में व्यापक राय-मशविरा करता, तो निर्वाचन आयोग के बारे में पैदा हुए संदेहों को दूर करने की गुंजाइश पैदा हो जाती। मगर ऐसा नहीं किया गया। नतीजा यह होगा कि जो सवाल और संदेह पहले खड़े हुए हैं, वे आगे भी बने रहेंगे।