प्रधानमंत्री मोदी और सत्ताधारी पार्टी ने जमीनी हकीकत को ठेंगा दिखाते हुए नए शासनकाल में “निरंतरता” की राह चुनी है। उसी “निरंतरता” की, जो इस हकीकत को लगातार विकट बनाते जाने के लिए जिम्मेदार है। मगर यह एक जोखिम भरा रास्ता है।
बीते फरवरी में- जब देश में आम चुनाव का माहौल बन रहा था- सरकार ने घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण से संबंधित आंशिक सूचनाएं जारी कर दीं। उनके जरिए यह धारणा बनाने की कोशिश की गई कि नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों से ऊपर से नीचे तक हर तबके का उपभोग बढ़ा है। बीते हफ्ते जब चुनाव नतीजे घोषित होने के बाद का शोर था और सबका ध्यान नई सरकार के गठन पर टिका था, तो सात जून को सरकार ने उस सर्वेक्षण की पूरी रिपोर्ट जारी की। उससे जो समग्र सूचना सामने आई, उनसे फरवरी में बनाई गई धारणाएं ध्वस्त हो जाती हैं। बल्कि उनसे यह सच्चाई सामने आती है कि जिन आर्थिक नीतियों पर देश चला है, उनकी वजह से आम जन की थाली हलकी होती चली गई है। रिपोर्ट के मुताबिक साल 1999-2000 से लेकर 2022-23 के बीच अनाज की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में लगातार गिरावट आई है। 2022-23 में तो ग्रामीण इलाकों में यह प्रति व्यक्ति दस किलोग्राम प्रति माह से से भी नीचे चली गई। 11 राज्यों में देहाती इलाकों में अनाज पर खर्च में गैर-बराबरी भी उपरोक्त वित्त वर्ष में बढ़ी।
यह एक गंभीर सूरत है। यहां यह ध्यान में रखना चाहिए कि भारत की आम आबादी के खाने में आज भी अनाज की सबसे ज्यादा मौजूदगी रहती है। अनाज की उपलब्धता इसलिए घटी है, क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, संचार आदि जैसी लगभग सभी सेवाओं के निजीकरण और उन पर खर्च बढ़ने के कारण सामान्य परिवारों के सामने खर्च घटाने की चुनौती बढ़ती चली गई है। ऐसे में जहां-जहां उन्होंने खर्च में कटौती की है, उनमें भोजन भी है। इन स्थितियों के कारण लोगों में गहराए असंतोष का इजहार कुछ राज्यों में इस बार आम चुनाव के दौरान हुआ। उससे सत्ताधारी भाजपा को तगड़ा झटका लगा। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रधानमंत्री मोदी और सत्ताधारी पार्टी ने इस हकीकत को ठेंगा दिखाते हुए नए शासनकाल में “निरंतरता” की राह चुनी है। उसी “निरंतरता” की, जो इस हकीकत को लगातार विकट बनाते जाने के लिए जिम्मेदार है। मगर यह एक जोखिम भरा रास्ता है। इसके दीर्घकालिक परिणाम गंभीर होंगे।