Wednesday

23-04-2025 Vol 19

उद्योगपतियों की अल्प-दृष्टि

इस समय सबसे बड़ी जरूरत लोगों की उपभोग क्षमता बढ़ाना है। तभी बाजार का विस्तार होगा, जिससे निजी निवेश के लिए अनुकूल स्थितियां बनेंगी। मगर उद्योग जगत अल्प-दृष्टि का शिकार हो गया लगता है। तभी वह कैपेक्स बढ़ाने की मांग कर रहा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि उनकी सरकार ने पिछले दस में जो अच्छे कार्य किए, मतदाताओं ने उसे पुरस्कृत किया है। कम-से-कम समाज का एक महत्त्वपूर्ण ऐसा जरूर है, जो प्रधानमंत्री के इस दावे से पूरी तरह सहमत नजर आता है। यह सहज प्रतिक्रिया होगी कि जो काम अच्छा है, उसे आगे बढ़ाया जाए। मगर कम-से-कम आर्थिक क्षेत्र में प्रधानमंत्री का दावा विवादास्पत है। कोरोना के बाद के दौर में मोदी सरकार ने सरकारी पूंजीगत खर्च (कैपेक्स) बढ़ा कर अर्थव्यवस्था को संभाले रखने की कोशिश की है। पिछले वर्ष इस मद में 10 लाख करोड़ रुपये रखे गए थे। फरवरी को पेश अंतरिम बजट में चालू वित्त वर्ष के लिए इसे 11.10 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया। लेकिन उद्योगपतियों की प्रमुख संस्था कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज इतने भर से संतुष्ट नहीं है। वह चाहती है कि जब इस वित्त वर्ष का पूर्ण बजट पेश हो (जो संभवतः अगले महीने होगा), तो कैपेक्स में 25 फीसदी की बढ़ोतरी की जाए। अगर सरकार यह मांग मानती है, तो उसे इस मद में दो लाख 78 हजार करोड़ रुपये और रखने होंगे।

बेशक बढ़ते कैपेक्स का लाभ उद्योगपतियों को मिला है। इस मद का सारा बजट पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप में जाता है, जो परोक्ष रूप से उद्योग जगत की जेब को मोटा बनाता है। इस खर्च से जीडीपी वृद्धि दर को ऊंचा रखने में मदद मिली है। मगर एक अन्य तथ्य यह है कि ऊंची आर्थिक वृद्धि दर के इस दौर में निजी निवेश पूर्व कोरोना काल से भी नीचे बना रहा है। उधर आबादी के बड़े हिस्से की उपभोग क्षमता में वृद्धि गतिरुद्ध रही है। इससे अर्थव्यवस्था का स्वरूप असंतुलित हो गया है। इस समय सबसे बड़ी जरूरत लोगों की उपभोग क्षमता बढ़ाना है। तभी बाजार का विस्तार होगा, जिससे निजी निवेश के लिए अनुकूल स्थितियां बनेंगी। मगर उद्योग जगत अल्प-दृष्टि का शिकार हो गया लगता है। या यूं कहा जाए कि सरकारी मदद से मुनाफा बढ़ाने का आसान रास्ता उसे भा गया है, भले अर्थव्यवस्था अपने समग्र रूप में असंतुलित बनी रहे। मगर यह उद्योग जगत सहित किसी की भी दीर्घकालिक खुशहाली का रास्ता नहीं है।

NI Editorial

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