तमिलनाडु में ईके पलनीसामी एडीएमके- भाजपा गठबंधन की तरफ से मुख्यमंत्री पद का चेहरा होंगे। साफ है, दोनों दल अपनी चुनावी ताकत को लेकर सचेत हैं। उधर बिहार चुनाव में कांग्रेस नेताओं के बयान कुछ अलग ही संकेत दे रहे हैं।
तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में अभी साल भर बाकी हैं, जबकि भाजपा ने अन्ना डीएमके के साथ अपने गठबंधन को अंतिम रूप दे दिया है। इसके बावजूद है कि इस सदी में दोनों पार्टियों के बीच गठजोड़ का तजुर्बा बहुत अच्छा नहीं रहा है। लगे हाथ ये एलान भी कर दिया गया है कि एरापडी के. पलनीसामी एडीएमके- भाजपा गठबंधन की तरफ से मुख्यमंत्री पद का चेहरा होंगे।
साफ है, दोनों दल अपनी चुनावी ताकत को लेकर सचेत हैं। उन्हें अहसास है कि अकेले लड़ते हुए वे डीएमके के नेतृत्व वाले गठबंधन के सामने कमजोर पड़ेंगे। उन्होंने पर्याप्त समय पहले हाथ मिलाने का फैसला किया है, ताकि दोनों दलों को जमीनी स्तर पर तालमेल बनाने और साझा तैयारियों का वक्त मिल सके। अब बिहार पर नज़र डालें, जहां छह महीनों में चुनाव होना है।
कांग्रेस नेतृत्व को कुछ समय पहले आकर यह अहसास हुआ कि बिहार में वह अपनी ताकत समेट पाए, तो ना सिर्फ सत्ताधारी एनडीए, बल्कि अपने गठबंधन सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल के सामने भी मजबूती खड़ा हो सकती है। तो उसने राजनीतिक गतिविधियां शुरू कीं। उसी वोट बैंक में जगह बनाने की जद्दोजहद में जुटी, जिस पर आरजेडी का दावा माना जाता है। दो रोज पहले कांग्रेस महासचिव सचिन पायलट ने पटना जाकर कहा कि “गठबंधन चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री तय करेगा।”
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जबकि आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद कई बार तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा बता चुके हैं। ऐसे तमाम संकेत हैं कि तेजस्वी भी खुद को गठबंधन का स्वाभाविक नेता मानते हैँ। बिहार के राजनीतिक समीकरणों के बीच यह अस्वाभाविक भी नहीं है। अस्वाभाविक कांग्रेस की अंतिम दौर में शुरू हुई गतिविधियां, अपनी ताकत का अयथार्थ आकलन, और गठबंधन के चेहरे को लेकर विवाद खड़ा करना है।
स्पष्टतः कांग्रेस नेतृत्व ने महाराष्ट्र और हरियाणा के पिछले विधानसभा चुनावों में अपनी हार से कोई सबक नहीं सीखा है। ना ही उसे अहसास है कि हाल में स्थानीय निकाय चुनावों में उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ एवं हरियाणा में उसे शून्य सीटें मिलीं। ये प्रकरण व्यावहारिक राजनीति में आज की भाजपा और कांग्रेस के अंतर को स्वंय स्पष्ट कर देते हैं।
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