उत्सवधर्मिता संकट में तो है!
धर्म, धार्मिकता का शोर कितना ही हो, लाईटें और दिखावा कितना ही हो परिवार में उत्सवधर्मिता का मजा वैसा नहीं है, जैसा पहले था। यादों के झरोखों में यह अनुभव दर्ज नहीं होगा कि तब क्या मजेदार दिवाली थी? पहले के जमाने में सब कुछ बहुत सामान्य था फिर भी मनभावक था। घर का स्वाद, साफ-सुथरेपन का नयापन, भावना, मेलजोल, उमंग-उत्साह की तब फुलझड़ियां ही फुलझड़ियां थी। हमारी शाश्वतता, निरंतरता की कई वजहों में एक वजह अपने कैलेंडर का तिथि, पर्व, त्योहारों से भरा होना है। इसके कारण भी संवेदनाओं, परंपराओं, सरोकारों की वह जीवंतता मिटी नहीं, जिसे मिटाने के...