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इंदिरा गांधी से प्रेरणा लें उद्धव

उद्धव ठाकरे परेशान हैं कि पार्टी छीन गई। पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह भी चला गया। उनका दुख और परेशानी स्वाभाविक है क्योंकि उनके पिता बाला साहेब ठाकरे ने शिव सेना का गठन किया था और कोई 20 साल पहले बाल ठाकरे ने खुद ही उद्धव को कार्यकारी अध्यक्ष बनवाया था। उनका गुस्सा इस बात को लेकर भी है कि बाल ठाकरे के स्वाभाविक राजनीतिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले उनके भतीजे राज ठाकरे ने भी पार्टी तोड़ी लेकिन वे भी उद्धव से शिव सेना नहीं छीन सके। नाराजगी का एक कारण यह भी है कि जिस भाजपा के नेता उनके पिता के चरणों में बैठते थे और उनके दम पर राजनीति करके महाराष्ट्र में पार्टी के पैर जमाए उस भाजपा ने शिव सेना के एक साधारण कार्यकर्ता रहे एकनाथ शिंदे को आगे करके अपनी सत्ता के इस्तेमाल से पार्टी छीन ली।

उद्धव को इस बात से परेशान होने की बजाय राजनीतिक इतिहास में झांकना चाहिए और उनके सहयोगी शरद पवार ने जो सलाह दी है उसे स्वीकार करके आगे बढ़ना चाहिए। पवार ने उनको सलाह दी है कि उनको चुनाव आयोग का फैसला मंजूर करना चाहिए और नए चुनाव चिन्ह पर राजनीति करनी चाहिए। आखिर खुद पवार कितने अलग अलग चुनाव चिन्हों पर राजनीति कर चुके हैं और हर बार सफल हुए हैं। उद्धव के सामने कांग्रेस और इंदिरा गांधी की भी मिसाल है, जिन्होंने कई बार बदले हुए चुनाव चिन्ह पर लड़ा और जीत हासिल की।

इंदिरा गांधी ने कांग्रेस की कमान 1966 में संभाली थी, जब वे प्रधानमंत्री बनीं। तब उनको गूंगी गुड़िया कहा जाता था। उस समय तक कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी था। लेकिन 1969 में कांग्रेस टूट गई और इंदिरा गांधी के गुट, जिसका नाम कांग्रेस आर था उसको गाय-बछड़ा चुनाव चिन्ह मिला। इंदिरा गांधी ने गाय-बछड़ा चुनाव चिन्ह पर 1971 का चुनाव लड़ा और कांग्रेस को भारी जीत दिलाई। सोचें, तब इंदिरा गांधी को खुद को भी पार्टी और देश की राजनीति में स्थापित करना था और पार्टी का नया चुनाव चिन्ह भी लोगों तक पहुंचाना था। तब प्रचार के इतने साधन नहीं थे और न मीडिया, सोशल मीडिया था। फिर भी इंदिरा गांधी कामयाब हुईं।

दूसरा मौका 10 साल से भी कम समय में आ गया। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस हारी तो एक बार फिर कांग्रेस में विभाजन हुआ और इंदिरा गांधी ने अलग पार्टी कांग्रेस आई बनाई। उस समय कर्नाटक कांग्रेस के नेता देवराज अर्स ने भी गाय-बछड़ा चुनाव चिन्ह पर दावा कर दिया, जिसकी वजह से यह निशान इंदिरा गांधी को नहीं मिला। तब उन्होंने अपनी पार्टी का चुनाव चिन्ह पंजा छाप रखा। इस निशान पर वे 1980 का चुनाव लड़ीं। प्रचार के ज्यादा साधन नहीं होने के बावजूद गांव-गांव और जंगलों तक में मैसेज पहुंच गया कि इंदिरा गांधी पंजा छाप पर लड़ रही हैं और 1980 के चुनाव में वे भारी बहुमत से फिर सत्ता में लौटीं। सो, जनता नासमझ नहीं है। अगर वह उद्धव ठाकरे को बाल ठाकरे का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानेगी तो वे जिस चुनाव चिन्ह पर लड़ेंगे उसी पर उनको वोट देकर जिताएगी।

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