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दक्षिण गंवा कर भी भाजपा को फायदा!

पुरानी कहावत है कि राजनीति में कुछ भी अनायास या बिना मतलब नहीं होता है। तभी तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने तमिलनाडु का जो विवाद छेड़ा है वह भी अनायास नहीं है। उसका कोई बड़ा और गहरा अर्थ है। ऐसा लग रहा है कि तमिलनाडु में अपनी पैठ बढ़ाने में सफल नहीं हो पा रही भाजपा इस दांव से दक्षिण बना उत्तर का मुद्दा बनाना चाहती है। यह भी कहा जा सकता है कि तमिलनाडु और एक तरह से लगभग पूरा दक्षिण भारत गंवा कर भाजपा हिंदी प्रदेश में बड़ी जीत हासिल करने की राजनीति कर रही है। यह आग से खेलने जैसा है क्योंकि इससे उत्तर और दक्षिण भारत का अलगाव बढ़ेगा।

सोचें, उत्तर भारत के रहने वाले एक राज्यपाल को क्यों एक दक्षिण भारतीय राज्य के नाम पर आपत्ति करनी चाहिए? तमिलनाडु का नाम पिछले साठ साल से स्वीकार्य है और कभी किसी को इस पर आपत्ति नहीं हुई है। भले नाडु का अर्थ देश या एक अलग भौगोलिक सीमा बताने वाला हो लेकिन इससे तमिलनाडु की इस स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह भारत का अविभाज्य हिस्सा है। तमाम उप राष्ट्रीयता और अलग संस्कृति व भाषा के विवाद के बावजूद तमिलनाडु से अलगाव की आवाज नहीं उठी है। उसकी तमिल अस्मिता वैसी ही है, जैसे पश्चिम बंगाल की बांग्ला, ओड़िशा की उड़िया या गुजरात की गुजराती अस्मिता है। तभी नाडु शब्द के शाब्दिक अर्थ को लेकर तमिलनाडु का नाम बदल कर तमिझगम करने का सुझाव पूरी तरह से अतार्किक और अप्रासंगिक है।

लेकिन राज्यपाल ने न सिर्फ नाम बदल कर तमिलनाडु का नाम तमिझगम करने की बात कही, बल्कि पोंगल के मौके पर राजभवन से भेजे गए निमंत्रण में उन्होंने खुद को तमिझगम का राज्यपाल लिखा। सोचें, राज्यपाल कैसे किसी राज्य का नाम बदल सकता है! लेकिन उन्होंने बदल दिया और उसका असर भी दिखने लगा है। तमिलनाडु में बाहरी और खास कर हिंदी भाषी लोगों का विरोध बढ़ने लगा है। राज्य सरकार ने हर नौकरी में तमिल भाषा की अनिवार्यता लागू कर दी है। हर नौकरी के लिए तमिल भाषा में न्यूनतम पासिंग मार्क्स अनिवार्य होगा। गैर तमिल लोगों का विरोध बढ़ेगा तो स्वाभाविक रूप से हिंदी भाषी क्षेत्र में भी प्रतिक्रिया होगी।

फिर यह सिर्फ तमिलनाडु का मामला नहीं रह जाएगा। अभी पिछले दिनों तेलुगू फिल्म आरआरआर ने अपने गाने के लिए गोल्डेन ग्लोब अवार्ड जीता तो फिल्म के निर्देशक एसएस राजामौली ने कहा कि यह बॉलीवुड की फिल्म नहीं है। यह तेलुगू की फिल्म है, जहां से मैं आता हूं। यह अलग अस्मिता को ताकतवर तरीके से सामने लाने की शुरुआत है। अर्थव्यवस्था, जनसंख्या, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, कर में हिस्सेदारी जैसी चीजों को लेकर दक्षिण के राज्य पहले ही नाराज हैं और अलग समूह बना रहे हैं। अब उनकी संस्कृति और अस्मिता को चुनौती दी जा रही है। इससे हो सकता है कि उत्तर भारत में या हिंदी भाषी क्षेत्रों में भाजपा को फायदा हो जाए लेकिन देश में विभाजन बहुत बढ़ जाएगा।

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