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कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं की चिंता

देश की तीन कम्युनिस्ट पार्टियों को इस बार कुल आठ सीटें मिली हैं। सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएम को चार सीट मिली है, जबकि सीपीआई और सीपीआई माले को दो-दो सीटें मिली हैं। आरएसपी को भी एक सीट मिली है। सो, अगर पूरे लेफ्ट मोर्चे की बात करें तो नौ सीटें बनती हैं, जो पिछली बार के बराबर हैं। लगातार इस तरह के प्रदर्शन से कम्युनिस्ट पार्टियों के भविष्य पर बड़ा सवाल खड़ा होता है। लेकिन सभी कम्युनिस्ट नेताओं की चिंता अलग है। इन नौ में से सिर्फ एक सीट ऐसी है, जो उस राज्य से मिली है, जहां लेफ्ट पार्टियों का गढ़ रहा है या जहां अब भी गढ़ बचा हुआ है। सीपीएम को एक सीट केरल से मिली है, जहां वह पिछले आठ साल से सरकार में है। इसके अलावा बाकी दो राज्य पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में लगातार दूसरे चुनाव में भी लेफ्ट मोर्चे को एक भी सीट नहीं मिली है।

सोचें, कुछ ही समय पहले पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में सीपीएम की सरकार होती थी। 20 साल पहले 2004 के लोकसभा चुनाव में पूरे देश में लेफ्ट मोर्चे को 60 सीटें मिली थीं और अब उसके लिए दहाई में पहुंचना मुश्किल है! तीनों लेफ्ट पार्टियों को जो सीटें मिली हैं वह सहयोगी पार्टियों की कृपा से मिली हैं। सीपीआई और सीपीएम दोनों के तमिलनाडु में डीएमके ने एलायंस में दो-दो सीटें दी थीं और दोनों पार्टियां ये चार सीटें जीत गईं। सो, सीपीआई की तो कुल सीट ही तमिलनाडु से मिली है। सीपीएम को तमिलनाडु से बाहर एक सीट केरल में और एक सीट कांग्रेस के सहयोग से राजस्थान में मिली है। सीपीआई माले की दोनों सीटें बिहार में राजद और कांग्रेस गठबंधन की वजह से मिल पाई हैं। 1989 के बाद पहली बार सीपीआई माले के सांसद लोकसभा में पहुंचे हैं।

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