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चुनाव के बीच आबादी का विवाद

केंद्र सरकार ने जनगणना नहीं कराई है। एक तरफ तो विपक्षी पार्टियां जाति गणना की बात कर रही हैं लेकिन दूसरी ओर पिछले डेढ़ सौ साल में पहली बार ऐसा हो रहा है कि देश में हर 10 साल पर होने वाली जनगणना ही नहीं हुई। कोरोना के नाम पर स्थगित हुई जनगणना अभी तक नहीं हुई है। लेकिन इस बीच आबादी के आंकड़ों के आधार पर सांप्रदायिक विभाजन शुरू हो गया है। सोचें, अभी लोकसभा का चुनाव चल रहा है और इस बीच यह आंकड़ा आया है कि पिछले 75 साल में हिंदुओं की आबादी देश में घटी है और मुसलमानों की आबादी बढ़ी है। वैसे सरकारी आंकड़ा यह बता रहा है कि हिंदुओं की आबादी में 7.82 फीसदी की कमी आई है, जबकि मुस्लिम आबादी करीब पांच फीसदी बढ़ गई है। इस आंकड़े के मुताबिक मुस्लिम आबादी जो आजादी के समय 9.84 फीसदी थी वह बढ़ कर 14.09 फीसदी हो गई है। इसी तरह ईसाई आबादी में भी  मामूली बढ़ोतरी हुई है और सिख आबादी भी बढ़ी है।

धार्मिक आधार पर देखें तो सिर्फ हिंदुओं की आबादी कम हुई है। लेकिन इस आंकड़े के साथ ही यह भी बताया गया है कि मुसलमानों की प्रजनन दर में भी उसी तरह कमी आ रही है, जैसे हिंदुओं में आ रही है। उनकी प्रजनन दर पहले चार फीसदी से ऊपर थी, जो अब ढाई फीसदी से कम हो गई है। लेकिन इस बात को हाईलाइट नहीं किया जा रहा है। सिर्फ इस बात की चर्चा हो रही है कि हिंदू आबादी घट रही है और मुस्लिम आबादी बढ़ रही है। इसे चुनाव का मुद्दा बनाया जा रहा है। इस आधार पर फर्जी पोस्ट तैयार करके बताया जा रहा है कि मुस्लिम आबादी 43 फीसदी बढ़ गई। पार्टियों और उम्मीदवारों के समर्थक इसे पोस्ट कर रहे हैं। इसके साथ ही जनसंख्या नियंत्रण के कानून की जरुरत बताने वाले पोस्ट भी सरकुलेट होने लगे हैं। सोचें, सरकार ने 2011 के बाद जनगणना नहीं कराई है। कोई आंकड़ा सरकार के पास नहीं है और सारी कल्याणकारी योजनाओं पुराने आंकड़ों के आधार पर चलाई जा रही हैं लेकिन उसी बीच आबादी घटने, बढ़ने का आंकड़ा जारी कर दिया गया!

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