वैसे तो हर पार्टी के पास अपने चुनाव रणनीतिकार और चुनाव प्रबंधन करने वाले लोग हैं। सबके पास सर्वे करने वाली टीम है लेकिन किसी टीम का इतना हल्ला नहीं मचता है, जितना कांग्रेस का मचता है। इसका कारण यह है कि पार्टी के लिए प्रचार की रणनीति बनाने वाले या सर्वे आदि करने वाले ही खुद को सबसे ऊपर मानने लगते हैं। वे अपना प्रचार खुद करते हैं और जनता में यह मैसेज बनवाते हैं कि कांग्रेस उनकी वजह से जीती है। जैसे सुनील कनुगोलू ने कर्नाटक में काम किया। सर्वे आदि किए और उम्मीदवार का चयन कराने में भूमिका निभाई। उसके बाद ऐसा हल्ला मचा, जैसे कांग्रेस कनुगोलू को कारण जीती है। उनको आनन फानन में मुख्यमंत्री का सलाहकार नियुक्त कर दिया गया और कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिल गया। लेकिन उसके बाद क्या हुआ?
उसके बाद हर जगह सुनील कनुगोलू फेल हो गए। राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उनका कथित जादू नहीं चला। सबसे बड़ी विफलता हरियाणा में मिली, जहां उनके सर्वे के आधार पर उम्मीदवार तय हुए और अनेक सीटों पर उनके बताए उम्मीदवार को कांग्रेस के बागी उम्मीदवार से कम वोट मिले। सोचें, जीत हार तो अपनी जगह है, कांग्रेस ने उनके कहने से जिस उम्मीदवार को टिकट दिया वह कांग्रेस के बागी उम्मीदवार से कम वोट ला पाया, फिर सर्वे का क्या मतलब रहा? कहा जा रहा है कि सुनील कनुगोलू ने कोई जमीनी सर्वे नहीं किया। पार्टी के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल के पसंदीदा उम्मीदवारों को ही उन्होंने अपने सर्वे में आगे दिखाया। उनका एकमात्र लक्ष्य वेणुगोपाल को खुश करने का था और इस चक्कर में कई जगह गलत उम्मीदवार टिकट पाने में कामयाब हो गए। कांग्रेस के मुकाबले अगर भाजपा को देखें तो उसके तमाम रणनीतिकार, प्रबंधक और सर्वे करने वाले पर्दे के पीछे रह कर काम करते हैं और किसी के नाम का हल्ला नहीं मचता है।