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शिंदे का ठाणे, कल्याण में सब कुछ दांव पर

मुंबई। ठाणे, भिवंडी और कल्याण मुंबई के उपनगर हैं। महा-महानगर का विस्तार हैं और उसका लघु स्वरूप भी। ये सब अपने-आप में अलग बड़े शहर बनते जा रहे हैं – मुंबई की तरह ट्रैफिक की समस्याएं,  ऊंची-ऊंची इमारतें, माल और महंगे स्कूल। भारत के कई हिस्सों – मुख्यतः उत्तरप्रदेश, राजस्थान तथा गुजरात – के बहुत से लोग यहां रहते हैं, और हर दिन इनमें नए लोग जुड़ते जा रहे हैं। सभी तरफ निर्माण हो रहा है – फ्लाईओवर, हाईवे, मेट्रो और गगनचुम्बी इमारतें बन रही हैं। बंबई से ठाणे या कल्याण जाना हो तो आपकी यात्रा चींटी की गति से ही हो पाती है। धूल, धुएं और गर्मी के बीच चुनावी माहौल आसपास के अन्य इलाकों जैसा ही है। सब कुछ धुंधला है और ढेर सारा कन्फ्यूजन है।

मुंबई से श्रुति व्यास

लोकसभा की इन तीन सीटों में ठाणे को शिवसेना का गढ़ माना जाता है। और ऐसा जिस व्यक्ति की वजह से मुमकिन हुआ वे थे आनंद दिघे। शिवसेना को शुरूआती राजनैतिक कामयाबी यहीं तब मिली थी जब सन् 1967 में हुए नगरपालिका निगम के चुनाव में उसने 40 में से 17 सीटों पर जीत हासिल की और वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी।

एक समय था जब दिघे ठाणे के बेताज बादशाह थे। वे जनता की मदद करते थे और उनका जनता और उसकी समस्याओं के प्रति भावनात्मक जुड़ाव भी था इसलिए उन्हें जबरदस्त समर्थन और सम्मान मिलता था। वे अपने समय में बहुत लोकप्रिय थे, लेकिन बालासाहेब की तरह, दिघे साहेब ने भी (उन्हें स्नेह से इस नाम से ही संबोधित किया जाता था) कभी चुनाव नहीं लड़ा। और बालासाहेब की तरह, जिनके मुंबई के आवास ‘मातोश्री‘ के दरवाजे हमेशा मदद चाहने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए खुले रहते थे, दिघे भी हर दिन शाम अपने घर पर जनता दरबार लगाते थे। मेरी मुलाकात ऐसे दो स्थानीय निवासियों से हुई – जो उस समय युवा या किशोर थे – लेकिन जिनके मन में दिघे के समय की मधुर यादें अभी भी ताजा हैं। आनंद आशाराम सन् 2001 में दस साल के थे जब आनंद दिघे की मृत्यु हुई। उन्हें वह सब याद है जो उनके माता-पिता ने दिघे द्वारा लोगों की मदद करने, उनकी समस्याओं को हल करने के लिए किए गए कार्यों के बारे में बताया था। दिघे समर्थक एक शासकीय कर्मचारी बताते हैं कि किस जिंदादिली के साथ साहिब ने ठाणे को अपना और शिवसेना का मजबूत किला बनाया था।

आज ठाणे में लड़ाई दिघे साहेब और बालासाहेब की विरासत के बीच है। यह चेलों की लड़ाई है। एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे की शिवसेना से खडेहुए राजन विचारे दोनों दिघे के शिष्य थे।

एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने ठाणे के पूर्व महापौर नरेश म्हस्के को उम्मीदवार बनाया है लेकिन यहां लड़ाई वास्तव में शिंदे और विचारे के बीच है। भाजपा इस सीट से पूर्व सांसद संजीव नाईक को गठबंधन का उम्मीदवार बनाना चाहती थी लेकिन शिंदे ने जोर लगाकर यहां से अपनी पार्टी का उम्मीदवार मैदान में उतारने में कामयाबी हासिल की। शिंदे के लिए यह सीट प्रतिष्ठा और गौरव का सवाल है।

जैसे अजीत पवार ने बारामती में अपना सब कुछ दांव पर लगाया उसी तरह एकनाथ की इज्जत भी ठाणे और कल्याण दोनों सीटों पर पर दांव पर लगी हुई है। ठाणे उनकी कर्मभूमि है और कल्याण से दो बार सांसद रहे उनके पुत्र डॉ. श्रीकांत शिन्दे मैदान में हैं। यहां शिवसेना उद्धव की उम्मीदवार हैं वैशाली दरेकर राणे जो दो बार पार्षद रह चुकी हैं। कल्याण में प्रवेश करते ही साफ हो जाता है कि माहौल श्रीकांत के पक्ष में है। यहां के निवासी आम लोगों से श्रीकांत के संपर्क-सम्बन्ध पर फिदा हैं। वे मुंबई से बेहतर सड़क मार्ग का जिक्र करते हैं। लेकिन यहां अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है और कल्याण का विकास चर्चा का विषय है।पर साथ ही मंहगाई का मुद्दा भी है। सुनील शहर में आटो चलाता हैं और बताता हैं कि वह उस पार्टी को वोट देंगा जो मंहगाई को कम कर सके और इसलिए उसका मानना है कि ‘हवा तो मशाल की है’।जैसा पूरे महाराष्ट्र का हाल है, वैसे ही इन उपनगरों में भी मंहगाई, बेरोजोगारी और स्थानीय उम्मीदवारों के खिलाफ एंटी इंकंबेंसी ज्वलंत मुद्दे हैं।

कपिल चौधरी एमआईडीजी भिवंडी में काम करते हैं और मेरे प्रश्न का बिना देरी किये उत्तर देते हुए कहते हैं “भिवंडी में तो हवा बाल्या मामा की है”। बाल्या मामा यानि सुरेश महात्रे जो एनसीपी (शरद पवार) के उम्मीदवार हैं। उनका मुकाबला भाजपा के मोरेश्वर पाटिल से है। पाटिल केन्द्रीय पंचायती राज राज्यमंत्री रहे हैं और आपको मुंबई से भिवंडी होकर जाने वाले हाईवे पर उनके निवास पर लगा बोर्ड निश्चित रूप से नजर आ जाएगा। लेकिन पाटिल का जनता से जीवंत संपर्क नहीं है। जबकि बाल्या मामा की जनता में अच्छी पैठ है। यहां शरद पवार का प्रभाव नहीं है मगर बल्या मामा लोगों की पसंद हैं।

किसी पार्टी या उम्मीदवार को लेकर कोई उत्साह नहीं है। यहां भ्रम व्याप्त है। नितेश, जो ठाणे में अपने पिता की पान की दुकान चलाते हैं समझाते हैं कि उम्रदराज मराठा केवल बालासाहेब के चुनाव चिन्ह ‘धनुष बाण‘ से परिचित हैं। धनुष बाण से बालासाहेब और दिघे की स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। “बस उसका फायदा शिंदे को मिल सकता है,” वे कहते हैं। लेकिन युवाओं की पहली पसंद मशाल है। शिंदे को स्थानीय पार्षदों का समर्थन प्राप्त है और वे ठाणे शहर के कोपरी-पाचपाखाडी से विधायक हैं। यहां शिंदे का बहुत कुछ दांव पर लगा है और यह उनकी अग्निपरीक्षा है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

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