बेंजामिन नेतन्याहू अब उन कुख्यात लोगों की सूची में एक है जिन पर मानवता के खिलाफ अपराध करने के आरोप है। लोकतांत्रिक ढंग से चुन कर सत्ता में आए एक नेता का नाम आतंकवादी मोहम्मद डिएफ और युद्धोन्मादी तानाशाह पुतिन जैसों की लिस्ट में आ जाना, इजराइल और विश्व दोनों के लिए सदमे जैसा है। इससे एक ओर कूटनीतिक दृष्टि से कई देश असमंजस में फँसे हैं वही दूसरी ओर अमेरिका के ढोंग का पर्दाफाश भी है।
सवाल है आखिर आईसीसी (इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट या अन्तरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय) को यह कठोर फैसला क्यों लेना पड़ा?
शुरूआत इस साल मई में हुई जब आईसीसी के अभियोजक करीम खान ने नेतन्याहू और इजराइल के पूर्व रक्षा मंत्री युआव गैलेन्ट पर जानते-बूझते गाजा युद्ध में भुखमरी को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने और गाजा के नागरिकों पर हमले करने का आदेश देने का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ वारंट जारी करने का अनुरोध किया। हालांकि उन्होंने यह माना कि इजराइल को अपनी रक्षा करने का पूरा हक़ है लेकिन उनका कहना था कि इसके लिए नेतन्याहू ने जो तरीके अपनाए वे अमानवीय थे। खान ने सावधानी बरती और शातिरता से काम लेते हुए इजराइली सैन्य बलों के जनरलों के बजाए राजनैतिक नेताओं को निशाना बनाया। इसके अतिरिक्त, आरोप पत्र में कत्लेआम का आरोप भी नहीं लगाया गया।
नेतन्याहू और गैलेन्ट के पास उन सुबूतों को चुनौती देने के लिए पर्याप्त समय था, जिनके आधार पर उन पर मानवता के विरूद्ध अपराध, जिनमें “हत्या, उत्पीड़न और अन्य अमानवीय कार्यों और भुखमरी के हालात बनाने के अपराध” शामिल हैं, के आरोप लगाए गए थे। नेतन्याहू स्वयं एक स्वतंत्र आयोग के माध्यम से जांच करवाने की पहल कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। कदाचित इसलिए क्योंकि ऐसी किसी भी जांच से 7 अक्टूबर के भयावह घटनाक्रम के पहले उनके द्वारा की गईं गलतियां और भूलें भी जांच के दायरे में आ सकती थीं।
21 नवंबर को तीन न्यायाधीशों के एक पैनल ने पाया कि यह मानने के पर्याप्त आधार हैं कि इस तरह के अपराध किये गए हैं और इसलिए नेतन्याहू और गैलेन्ट के खिलाफ वारंट जारी किए गए।
हालिया घटनाक्रम से खान के तर्क और मज़बूत हुए हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ लगातार उत्तरी गाजा में अकाल की स्थितियों पनपने की चेतावनी दे रहा है क्योंकि वहां पिछले 40 दिनों से न के बराबर मानवीय मदद पहुंच पा रही है।
लगभग उसी समय, 7 अक्टूबर के हमले के मास्टरमाइंड हमास नेता मोहम्मद डिएफ के खिलाफ भी वारंट जारी किया गया, जिसके बारे में इजराइल का दावा है कि वह उसे मार चुका है। खान ने इस नरसंहार के योजनकार याहया सिनवार और हमास के तत्कालीन प्रमुख इस्माइल हनीय के खिलाफ भी वारंट जारी करने का अनुरोध किया था। लेकिन इन दोनों अनुरोधों को वापिस ले लिया गया क्योंकि इसी वर्ष इजराइल ने इन दोनों को मौत के घाट उतार दिया था।
इजराइल इस घटनाक्रम से भौचक्का है। नेतन्याहू को इस्तीफा देने की सलाह देने वाले विपक्षी नेता येअर लेपिड ने कहा, “नेतन्याहू, सिनवार और डिएफ के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी करना अविश्वसनीय है। इन लोगों की कोई तुलना नहीं है। हमें यह अस्वीकार्य है। यह अक्षम्य है”। प्रधानमंत्री के एक अन्य प्रतिद्वंद्वी बैनी गैन्स भी उनके समर्थन में सामने आए। नेतन्याहू ने इन आरोपों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इन्हें बेतुका और यहूदी विरोधी बताते हुए खारिज कर दिया। उन्होंने आईसीसी को पक्षपाती और राजनीतिक आधार पर फैसला करने वाली संस्था बताया।
पहली बात यह है कि आईसीसी का फैसला न तो यहूदी-विरोधी है और ना ही पक्षपातपूर्ण। व्लादिमिर पुतिन के खिलाफ भी बच्चों को जबरदस्ती यूक्रेन से रूस भेजने के आरोप में गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया है, जहां बहुत से रूसी परिवारों ने उन्हें गोद ले लिया है। यह वारंट भी लगभग वैसे ही आधरों पर जारी हुआ है।
जहां तक इन आपत्तियों का सवाल है कि आईसीसी के न्यायाधीश इजराइल और हमास को एक तराजू में तौल रहे हैं, उसमें इसलिए दम नहीं है क्योंकि एक हत्यारा तो आखिरकार एक हत्यारा ही होता है, भले ही उसका दर्जा, उसकी राजनीति या विचारधारा कुछ भी क्यों न हो।
इजराइल का यह तर्क भी खोखला है कि यह मामला आईसीसी के क्षेत्राधिकार के बाहर है। अमेरिका, चीन, भारत और रूस की तरह, इजराइल ने भी उस रोम समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए थे जिसके माध्यम से इस न्यायालय की स्थापना हुई थी। न ही इजराइल नेतन्याहू या गैलेंट को ‘द हेग’ (जहाँ आईसीसी का मुख्यालय है) प्रत्यर्पित करने वाला है, क्योंकि इजराइल आईसीसी का सदस्य ही नहीं है। लेकिन 124 देश, जिनमें से बहुत से इजराइल के मित्र और सहयोगी हैं, ऐसा कर सकते हैं। इसका मतलब यह है कि यदि नेतन्याहू इन देशों में से किसी की भी यात्रा पर जाएं तो उन्हें गिरफ्तार करना उस देश के लिए अनिवार्य होगा। कुल मिलकर नेतन्याहू अब केवल इजराइल में सुरक्षित हैं।
लेकिन इस पूरे घटनाक्रम से जो बात साफ़ उभर कर सामने आती है वह है अमेरिका का दोगलापन। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने बिना देरी किये इस फैसले की आलोचना की और उसे चौंकाने वाला बताया। अमेरिका ने कभी आईसीसी का समर्थन नहीं किया है। डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान अमेरिकी सैनिकों पर लगे युद्ध अपराधों की जांच आईसीसी द्वारा किए जाने पर रोक लगा दी थी। लेकिन जो बाइडन ने यह रोक हटा दी और न्यायालय के साथ भागीदारी करके रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन के खिलाफ युद्ध अपराधों के आरोप लगाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया था। अतीत में अमेरिका सूडान के पूर्व नेता उमर अल-बशीर के मामले में भी ऐसा ही कर चुका है।
दुनिया भर में अब अमेरिका के रवैये की चर्चा हो रही है। इजराइल के स्वयं की रक्षा करने के अधिकार और 7 अक्टूबर के नरसंहार का बदला लेने को कोई गलत नहीं मानता, लेकिन गाजा में बेरहमी से की गई सैन्य कार्यवाही में किए गए अंधाधुंध हमलों में लगभग 40,000 फिलिस्तीनियों को, जिनमें से अधिकांश साधारण नागरिक थे, जान गंवानी पड़ी है। इसके अलावा लाखों अन्य लोग बेइंतिहा कष्ट भोग रहे हैं। यह तो ठीक नहीं है। यह तो गलत है। क्या यह अमानवीय नहीं है? क्या निहत्थे बेकसूर लोगों को बदले की कार्यवाही का निशाना बनाना ठीक है?
यह लगभग निश्चित है कि अगले साल डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता संभालने के बाद बहुत कुछ बदल जाएगा, पलट जाएगा। लेकिन यदि पुतिन के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी करना उचित है, अफ्रीकी नेताओं के खिलाफ ऐसा किया जाना स्वीकार्य है, और उसी क्रम में यदि बेंजामिन नेतन्याहू के मामले में भी ऐसा ही किया जाता है, तो यह पूरी तरह औचित्यपूर्ण है। आखिर क्यों ऐसा नहीं होना चाहिए? क्या अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर नियम-कानून लागू किए जाने चाहिए? क्या लोकतांत्रिक ढंग से चुना गया एक विकसित या विकासशील देश का नेता सत्ता हाथ से खिसकती देख नरसंहार करने पर आमादा नहीं हो सकता? नेतन्याहू ने यही किया है। अमेरिका ने भी यही किया है। क्या अब आरोपी का चेहरा देखकर न्याय होगा या उस पर लगे आरोपों को देख कर?(कॉपी: अमरीश हरदेनिया)