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सीरिया में कैसे संभव नई शुरूआत?

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मनमानी और लोगों को दबा कर शासन करने वालों का राज एक न एक दिन खत्म होता ही है। और जब उनके राज का अंत होता है तो वह निष्ठुर होता है। और उन देशों में भी जहां लोकतंत्र दिखावे का है। हाल के दशकों पर निगाह डालें। शेख हसीना का क्या हुआ? सद्दाम हुसैन, गद्दाफी, जीन अल अबिदीन बेन अली, होस्नी मुबारक आदि की सूची में अब बशर अल-असद का नाम भी जुड़ गया है।

असद परिवार के पचास साला राज के खात्मे का सभी और स्वागत है। सीरिया में लोगों ने राहत की सांस ली। वहां ‘एक नई शुरूआत’ और बाकी दुनिया से नए सिरे से संबंध कायम करने को लेकर जश्न का माहौल है। पश्चिम ने असद सरकार के तख्तापलट पर अपनी प्रसन्नता और हर्ष बेबाकी से जाहिर की है।

लेकिन एक ऐसे देश के लिए नई शुरूआत कैसी होगी जिसने सिर्फ निर्ममता भुगती है? वे एक नई शुरूआत कैसे करेंगे जबकि उन्होंने जीवन भर सिर्फ दमन देखा-भोगा है? इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इस्लामिक उग्रवादियों और आतंकवादियों का गठबंधन ‘ताजी शुरूआत’ का प्रतीक भला कैसे बन सकता है? भविष्य में वे क्या करेंगे यह कोई नहीं जानता। ऐसे में क्या इनके सत्ता पर काबिज होने का जश्न मनाया जाना चाहिए?

दस साल पहले मिस्र, लीबिया, टयूनीशिया और यमन – जहां तानाशाहों का तख्ता पलट दिया गया था – में खुशियां मनाईं गईं थीं और सुनहरे, आजादी भरे दिनों का इंतजार था। उम्मीदों का कोई ठिकाना न था। सारी दुनिया ने तानाशाहों का राज खत्म होने की थी। ये चार देश क्रांति की सफलता की नजीर बन गए थे। उसे अरब स्प्रिंग कहा गया था। लेकिन आज इन देशों में जो हालात हैं वे हमारे लिए एक चेतावनी हैं।

मिस्र में लोकतंत्र अधिक समय तक कायम न रह सका। लीबिया, टयूनीशिया और यमन गृहयुद्ध में फंस गए। ये विदेशी ताकतों का अखाड़ा हुए। खाड़ी के अमीर देशों ने वहां अपने लोगों को सत्ता पर काबिज कराने और अन्य देशों में अलोकतांत्रिक शक्तियों की मदद के लिए बेशुमार पैसा खर्च किया। आज इस क्षेत्र में 2010 से भी कम आजादी है – और ज्यादातर पैमानों पर इन देशों के हालात खराब ही हैं।

लोकतंत्र के झंडाबरदार पश्चिमी देश, इन देशों की नई शुरुआत में मददगार नहीं हुए। जैसा कि अफगानिस्तान के मामले में हुआ, अब वे इस सोच-विचार में डूबे हुए हैं कि उन देशों में बगावत को सफल बनाने के लिए वे क्या कर सकते थे। क्या इससे ज्यादा आत्ममुग्ध होना संभव है?

जो हुआ उसकी वजह बहुत और सीधी है। बगावत के बाद ईरान से रूस तक, और पश्चिम देशों से लेकर तक क्षेत्रीय ताकतों तक – सभी इन देशों में अपना दबदबा कायम करने में जुटे। इसके अलावा, इस्लामवादी समूह भी सक्रिय थे जो चाहते थे कि उनकी मर्जी चले और सत्ता पर उनका प्रभाव रहे। लेकिन सबसे बड़ी भूल हालातों को समझने में हुई। लोकतंत्र के लिए मात्र यह पर्याप्त नहीं होता कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव हों। उसके लिए बातों को समझने, जानने और उनमें रूचि लेने वाले नागरिकों, सभी पक्षों को स्वीकार्य नियम-कानूनों और इस सांझे भरोसे की भी जरूरत होती है कि राजनैतिक मतभेद देश के अस्तित्व के लिए खतरा नहीं बनेंगे।

सीरिया पर असद का राज खत्म होना एक राहत भरी खबर है लेकिन अनिश्चितता के हालात हैं। इस्लामिक उग्रपंथियां का गठबंधन एक बड़ा खतरा है। हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएस), जिसकी इस तख्तापलट में सबसे बड़ी भूमिका थी, काफी शक्तिशाली है। अमेरिका इसे आतंकवादी संगठन घोषित कर चुका है। देश में अपना दबदबा कायम करने के लिए एचटीएस को एक अन्य तुर्की-समर्थित संगठन, जिसका प्रभाव क्षेत्र उत्तरी सीरिया है, और कुर्दिश नेतृत्व वाले पूर्वी सीरिया के एक धर्मनिरपेक्ष गठबंधन, जिसे अमेरिका का समर्थन हासिल है, से निपटना होगा।

हालांकि एचटीएस अपनी छवि एक उदारवादी और नर्मदिल संगठन की बनाने की कोशिश कर रहा है, जो ईसाईयों, ड्रूसों और असद के समर्थन के मुख्य आधार शिया समुदाय के अलावतियों समेत सीरिया के विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों की रक्षा करना चाहता है। लेकिन यह तभी संभव हो सकेगा जब असद के बाद के दौर के सीरिया के शासन के संचालन के संबंध में इन समुदायों के साथ इस संगठन का कोई समझौता हो। यदि ऐसा नहीं हुआ तो गृहयुद्ध चलता रहेगा क्योंकि विभिन्न अल्पसंख्यक समूहों के लडाके, नई केन्द्रीय सरकार को अपने-अपने इलाकों में घुसने से रोकने के लिए खड़े हो जाएंगे।

जहां तक विदेशी शक्तियों का सवाल है, तुर्की ने अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश शुरू कर दी है। तुर्की, सीरिया में राजनैतिक स्थिरता इसलिए भी चाहता है क्योंकि तुर्की में रह रहे 30 लाख सीरियाई शरणार्थी तब तक अपने देश वापिस नहीं जाएंगे जब तक वहां से असद का नामोनिशां मिट नहीं जाता। राष्ट्रपति अर्दोगान को शरणार्थियों को वापिस भेजने में असफल रहने के लिए देश में आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन तुर्की किस सीमा तक एचटीएस को अपने नियंत्रण में रख सकेगा, यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। अर्दोगान का एचटीएस के नेता अबू मोहम्मद अल-जोलानी पर कितना प्रभाव है, यह स्पष्ट नहीं है। इसके अलावा ईरान और रूस की प्रतिक्रिया क्या होगी और वे कौन-से कदम उठाएंगे, यह समय बताएगा। ईरान का मानना है कि एचटीएस के सशक्त होने और आगे बढ़ने में इजराइल और अमेरिका का मुख्य योगदान रहा है। उसका दावा है कि इजराइल इस संघर्ष का लाभ उठाकर सीरिया के रास्ते ईरान से लेबनान पहुंचाए जाने वाले हथियारों के मार्ग को बंद करना चाहता है। यह बात सोशल मीडिया पर बड़े पैमाने पर कही जा रही है, खासकर शियाओं द्वारा। सीरिया का घटनाक्रम निश्चित ही क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को प्रभावित करेगा।

असद परिवार का राज खत्म होना उतना ही बुरा है जितना उनका शासन था। इसलिए दुनिया को और बुरे हालातों के लिए तैयार रहना होगा। दुनिया के इस इलाके में अनिश्चितता है और कष्टपूर्ण हालात हैं। कुछ देश पूरी तरह असफल हो चुके हैं और कुछ ऐसे है जो अपनी युवा आबादी को बेहतर भविष्य देने में सक्षम नहीं हैं। बगावतें, कामयाब कम होती हैं और नाकामयाब ज्यादा। वे अक्सर चार दिन की चांदनी साबित होती हैं। पश्चिम एशिया में एक निर्दयी शासन का अंत दूसरे निर्दयी शासन को जन्म देता है – जो उतना ही या उससे ज्यादा  बर्बर होता है। लोकतंत्र, स्वतंत्रता, उम्मीद और समृद्धि इस क्षेत्र को रास नहीं आते। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

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By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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