लोकलुभावनवादी नेताओं को अर्थशास्त्र की समझ नहीं होती। मगर अपने को क्योंकि सर्वज्ञ समझते है तो वे बढ़ा-चढ़ाकर बातें करने, गलत को सही साबित करने और अपना ढोल पीटने में माहिर होते हैं। उनकी नीतियों में दम नहीं होता मगर वे शब्दों का जाल बुनने, प्रोपेगेंडा करने और समाज में विभाजन पैदा करने में कुशल होते हैं। अफ़सोस, कि सारी दुनिया में ऐसे लोग सिंहासनों पर आसीन हो रहे हैं। दुनिया में अफरातफरी मची हुई है तो क्या? ये नेता, ये ईश्वर के अवतार तो हैं। वे कोई गलती कभी कर ही नहीं सकते!
ये नेता खिझाने की हद तक राजनीति में माहिर होते हैं। लेकिन अर्थव्यवस्था का ककहरा उनके बूते के बाहर होता है। यह बहुत ही अजीब और भ्रमित करने वाला है क्योंकि ज्यादातर लोकलुभावनवादी नेता टैक्स को कम से कम करने और नियम-कानूनों की जटिलता को कम करने की बातें करते हैं। वे कहते कि वे व्यवसाय करना आसान बनाएंगे। मगर याद रखिये, लोकलुभावनवाद हर तरह के व्यापार को आसान नहीं बनाता। राजनीतिज्ञों की सनक के कारण उनका रवैया बदलता रहता है, इसलिए बड़े-बड़े व्यवसायी भी यह मान कर नहीं चल सकते कि उनकी कंपनियां पर सत्ता की कृपा दृष्टि बनी रहेगी।
भारत पर ही नजर डालें। सत्ता अनुकूल तौर-तरीके अपनाकर अडानी और अंबानी ने दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की की। वही छोटे व्यापारी मोदीनामिक्स की वजह से तबाही के कगार पर हैं। नोटबंदी, जो मोदीनामिक्स का मास्टर स्ट्रोक था, के कारण अब भी मध्यम और निम्न मध्यमवर्गीय वर्ग मुसीबतों का सामना कर रहा है। पर्स रखने का प्रचलन बहुत कम हो गया है क्योंकि बाजार में नकदी का अभाव है। 50 रू. के छुट्टे करवाना तक मुश्किल हो गया है। यह चिंताजनक है कि भारत के नव-मध्यम वर्ग के लगभग एक-तिहाई लोग दुबारा गरीब की श्रेणी में पहुंच गए हैं। ओरबान के राज में हंगरी में कुछ कारपोरेट्स का संरक्षण दिया जा रहा है, लेकिन पूरे निजी क्षेत्र का राजनीतिकरण हो गया है। कुछ क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण हो गया है या उन पर शासन का एकाधिकार हो गया है।
अर्थशास्त्रियों और उनके द्वारा किए गए अध्ययनों के अनुसार लोकलुभावनवादी नेता विकास में रोड़ा होते हैं। 2021 में तीन अध्येताओं के एक अध्ययन में यह पाया गया कि व्यवसाय-समर्थक होने का दिखावा करने के बावजूद लोकलुभावनवादी नेता व्यापार-व्यवसाय के मामलों में राष्ट्रवादी होते हैं। लोकतंत्र की अध्येता याशा मोंक भी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि दक्षिणपंथी लोकलुभावनवादी नेता कुछ सालों तक तो शेयरों की बढ़ती कीमतों और निवेशकों के आत्मविश्वास का मजा लेते हैं। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है उनके द्वारा कानून के राज को हानि पहुंचाने, व्यक्ति-केन्द्रित नीतियों और विशेषज्ञों को हाशिए पर रख देने का नकारात्मक प्रभाव बढ़ता जाता है। पांच से लेकर दस साल के अंदर इन देशों में शेयर बाजार में तेज गिरावट, आर्थिक संकट और तीव्र मुद्रास्फीति जैसे हालात बनने की संभावना, उन देशों की तुलना में अधिक होती है जहां सत्ता लोकलुभावनवादी नेताओं के हाथ में नहीं होती।
मोटे तौर पर शोधकर्ता हमें यह बताते हैं कि लोकलुभावनवादी नेताओं के सत्ता में होने पर 15 साल के बाद प्रति व्यक्ति जीडीपी और जीवनस्तर पर लगभग 10 प्रतिशत का नकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि अर्थव्यवस्था अंतर्मुखी हो जाती है, संस्थानों को कमजोर कर दिया जाता है और मेक्रोइकोनोमिक नीतियों के संबंध में जोखिम लिया जाता है। और जब लोकलुभावनवादी नेता अमेरिका जैसे विकसित, शक्तिशाली और वैश्विक व्यवस्था को हिला देने की क्षमता रखने वाले देश में सत्ता पर काबिज होते रहते हैं तो आर्थिक विनाश का खतरा नजर आने लगता है। आर्थिक मामलों में ट्रम्प की मनमानी और दादागिरी से न सिर्फ अमेरिका बल्कि सारी दुनिया में विकास पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। सत्ता में आने के कुछ सप्ताहों के अंदर ही ट्रंप बाजारों को जबरदस्त नुकसान पहुंचा चुके हैं और अमरीकी अर्थव्यवस्था पर भी इसका दुष्प्रभाव बढ़ता जा रहा है। ‘मुद्रास्फीति जनित मंदी‘ शब्द एक बार फिर आम संवाद का हिस्सा बन गया है क्योंकि आयात शुल्क के चलते ट्रेड वॉर भड़क गया है जिससे शेयर बाजार झटके खा रहा है। एक ठेठ लोकलुभावनवादी की तरह, ट्रंप इसका दोष तथाकथित वैश्विकतावादियों पर मढ़ रहे हैं। लोकलुभावनवादी रणनीतियों में वैश्विकरण की निंदा करना और जार्ज सोरोस पर ऊंगली उठाना शामिल है, जैसा कि ट्रंप ने किया। या जिस तरह ओरबान लगातार यह इशारा करते हैं कि सोरोस अवांछित प्रवासियों को धन मुहैया करा रहे हैं।
लेकिन लोकलुभावनवादियों को इस बात का पक्का भरोसा होता है कि उनकी आर्थिक नीतियां देश के लिए फायदेमंद होंगीं, और वे उन सारे लक्षणों को नजरअंदाज कर देते हैं जो इसके ठीक उलट संकेत दे रहे होते हैं। लेकिन मौजूदा दौर लोकलुभावनवादियों के फलने-फूलने का है क्योंकि एक बार सत्ता पर काबिज होने के बाद वे गैर-लोकलुभावनवादी के रूप में इससे दोगुने समय तक सत्ता में बने रह सकते हैं। ध्रुवीकरण के माध्यम से मतदाताओं का जबरदस्त समर्थन हासिल करने की लोकलुभावनवादियों की रणनीति से समाज में परस्पर भरोसा घटता है, जिसका जीडीपी और उद्यमिता से गहरा संबंध होता है। लोकलुभावनवादी कुशल राजनीतिज्ञ होते हैं लेकिन अर्थव्यवस्था संबंधी मामलों में वे उतने ही अकुशल होते हैं। इसके पहले 1930 के दशक में अंतिम बार लोकलुभावनवाद वैश्विक स्तर पर इतना मजबूत था, जब महामंदी के बाद दक्षिण एवं वामपंथी राजनीतिज्ञ लोकलुभावनवादी रणनीतियां अपनाकर दुनिया भर में अपना बोलबाला कायम कर रहे थे जिसके विनाशकारी परिणाम हुए। वैसे ही हालातों के लिए तैयार रहिए। जैसा कि गार्जियन ने लिखा ‘‘लोकलुभावनवाद सिगरेट की तरह होता है। पहला सिगरेट आपको नुकसान नहीं पहुंचाता। लेकिन जब आपको उसकी लत लग जाती है तो वह जानलेवा साबित होती है।‘‘ (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)