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अडानीः मोदी का राजधर्म!

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याद करें भारत में कौन सा राजा (सम्राट अशोक से लेकर पृथ्वीराज चौहान या मुस्लिम-अंग्रेज शासकों के कार्यकाल में), प्रधानमंत्री ऐसा हुआ, जिसने किसी उद्योगपति-व्यापारी की पैरोकारी को अपना राजधर्म बनाया? जवाब है कि ऐसा उदाहरण प्राचीन, मध्य और आधुनिक काल के किसी भी राजा, प्रधानमंत्री का नहीं है। क्यों? इसलिए क्योंकि राजनीति का उद्देश्य व कर्तव्य समाज के सभी वर्गों में संतुलन बनाने का है। राजा-प्रधानमंत्री कितना ही भ्रष्ट हुआ हो उसने किसी पर मेहरबान हो कर उसे लाइसेंस, कोटा  दे कर क्रोनी पूंजीपति बनाया हो लेकिन राजा खुद धनपति का एजेंट बन कर उसे काम धंधे दिलाने को राजधर्म बनाए ऐसा एक भी उदाहरण भारत के इतिहास में नहीं है! आखिर राजा, राजा होता है, उसकी गरिमा पूरी नस्ल, कौम और देश की आन-बान-शान का प्रतीक होती है! चीन, रूस, अमेरिका, जापान आदि तमाम देशों की सरकारें देश की समृद्धि, व्यापार, वाणिज्य के लिए कूटनीति करती हैं, करार करती हैं, शी जिनफिंग, पुतिन जैसे तानाशाह शासक क्रोनी पूंजीपतियों का खेला भी बनाते हैं लेकिन क्या कभी सुना कि इनमें से किसी ने किसी चाइनीज या रूसी उद्योगपति की पैरोकारी को अपना राजधर्म बनाया है?

अमेरिका घोषित पूंजीवादी देश है लेकिन उसका प्राथमिक धर्म सबको बराबर के अवसर मुहैया कराने का है। पूरी दुनिया में अमेरिकी कंपनियों का दबदबा और धंधा है लेकिन कंपनियां, अमेरिकी खरबपति अपने बूते, अपनी तकनीक, अपने प्रोडक्ट, अपनी सर्विस, अपनी उद्यमशीलता और कॉरपोरेट कायदों-नियमों से बने हुए हैं। सच्ची प्रतिस्पर्धा में बिजनेस करते हैं। डोनाल्‍ड ट्रंप ने पिछले कार्यकाल में अमेरिकी मोटरसाइकिल कंपनी हार्ले-डेविडसन को ले कर भारत पर दबाव बनाया था तो उसका आधार भारत-अमेरिकी व्यापार नीति में कस्टम ड्यूटी की असमानताओं के हवाले था न कि उस कंपनी की निज पैरोकारी थी। शी जिनफिंग हों या पुतिन, इनके इतने वर्षों के शासन में वहां के किसी भी एक ऐसे उद्योगपति का नाम नहीं है, जैसे भारत में नरेंद्र मोदी से गौतम अडानी का बना है! जिन कंपनियों और उद्योगपतियों को लेकर चर्चा थी कि चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी से फलां-फलां की किस्मत बनी उनमें एक भी शी जिनफिंग या पुतिन के माई बाप उद्योगपति के रूप में दुनिया में चर्चित नहीं है!  उलटे कभी जो ऐसे नाम सुने भी गए वे या तो जेल में (हां, चाइनीज खरबपति) है या गुमनामी में चले गए हैं!

क्यों? इसलिए क्योंकि राजा, राजा होता है वह कैसे भला किसी सेठ को अपनी व्यवस्था, शासन, राजधर्म का पर्याय बनने दे सकता है। मगर भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गौतम अडानी को अपने राजधर्म में, जब तक सूरज-चांद रहेगा तब तक अडानी का राज चलेगा वाली जो परिघटना रची है वह विश्व के इतिहास में अनहोनी है।

और यह भारत का वैश्विक कलंक है! अमेरिका, यूरोप और वैश्विक वित्तीय जगत में अडानी ग्रुप की आज बदनामी का सत्य अपनी जगह है लेकिन क्या विश्वास करेंगे कि अफ्रीका के केन्या में भारत को लेकर क्या नैरेटिव बना हुआ है? बतौर भारतीय मेरे और आपके, 140 करोड़ लोगों के वजूद में केन्या में सुनाई दिए इस वाक्य पर जरा गौर करें- भ्रष्ट भारतीय आख़िरकार यहां आ ही गए। मुझे भरोसा नहीं हो रहा है कि ये सब हो रहा है। हमारे राष्ट्रपति जो केन्या से बहुत मोहब्बत करते हैं, उन्होंने 30 साल के लिए एयरपोर्ट अडानी को दे दिया है। अडानी सुन लीजिए अगर 2027 में हम राष्ट्रपति चुने गए तो आपको यहां से भागना होगा। हम भ्रष्टाचार से नफ़रत करते हैं, इसलिए आपसे भी नफ़रत करते हैं।

उफ! यह भावना। तभी केन्या के राष्ट्रपति ने जब संसद में अडानी के ठेके को रद्द करने की घोषणा की तो सारे सांसदों ने खड़े हो कर ऐसे तालियां बजाई मानों कोई ऐतिहासिक काम हुआ हो, भ्रष्टाचार से आजादी मिली हो!
क्या इसका यह मतलब नहीं है कि भारत अब भ्रष्टाचार एक्सपोर्ट कर रहा है! एक अदानी से दुनिया में भारतीय ‘भ्रष्ट भारतीय’  करार दिए जा रहे है!

और वैश्विक सुर्खियां है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गौतम अडानी के धंधे को अपना राजधर्म बना रखा है। श्रीलंका हो, बांग्लादेश हो, ऑस्ट्रेलिया हो, अमेरिका हो या यूरोप और वैश्विक वित्तिय व्यवस्था में सर्वत्र गौतम अडानी की चर्चा है। उनके साथ उनके बतौर प्रमोटर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम है! और अडानी का अर्थ क्या? ”भ्रष्ट भारतीय आखिरकार यहां आ ही गए।…”

संघ परिवार और भाजपा की बुद्धि भले न माने कि ”भ्रष्ट भारतीय’ की वैश्विक चर्चा भारत की भी बदनामी है। और तभी सोशल मीडिया पर यह देखने-सुनने में मिल रहा है कि अडानी भारत का राष्ट्र गौरव है तथा हिंदू आइडिया ऑफ इंडिया के जगत सेठ की बदनामी एक वैश्विक साजिश है। दुनिया जलीभुनी हुई है भारत के नवोदित खरबपति से! मतलब बुद्धि-विवेक को ताक पर रख कर राष्ट्रधर्म पर इस तरह विचार! तभी नामुमकिन नहीं है कि आने वाले समय में संघ परिवार के बौद्धिक यह साहित्य भी रचने लग जाएं कि इक्कीसवीं सदी हिंदुओं के महाराणा प्रताप और उनके भामाशाह गौतम अडानी की थी और इन्होंने दुनिया में पताका फहराते हुए कैसे-कैसे पापड़ बेले!

बहरहाल, असल बात है इस इक्कीसवीं सदी में हम हिंदुओं के विवेक को यह क्या हुआ जो उनके शासन का राष्ट्रधर्म एक उद्योगपति के सरंक्षण व प्रमोशन का! ऐसा न रामजी, पांडवों के समय में था। न सम्राट अशोक या विक्रमादित्य या चंद्रगुप्त मौर्य व पृथ्वीराज चौहान के समय था। न ही अकबर, जहांगीर, अंग्रेज के दरबार में था तो न नेहरू, अटल बिहारी, मनमोहन सिंह के समय था।

अभी एक फिनोमिना अमेरिका में इलॉन मस्क का होता हुआ है। अमेरिकी इतिहास में भी पहली बार है जो राष्ट्रपति के अनुयायी के रूप में प्रशासन की भावी दशा-दिशा में मस्क अपना रोल बनाने की संभावना लिए हुए हैं। इससे अमेरिका के भीतर, पूरी पश्चिमी सभ्यता में चिंता और बहस है। कल ही ‘गार्डियन’ में यह पढ़ने को मिला कि आधुनिक जर्मनी में सबसे लंबा शासन करने वाली पूर्व चासंलर एंजिला मर्केल ने अमेरिकी सरकार में इलॉन मस्क को ले कर ‘भारी चिंता’ (huge concern) जाहिर की। क्यों? इसलिए क्योंकि उनका मानना है कि राजनीति का उद्देश्य ताकतवर और सामान्य नागिरकों के मध्य सामाजिक संतुलन का शासन बनाना है। उनके अनुसार पश्चिमी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए डोनाल्ड ट्रंप को चुना जाना इसलिए चिंताजनक है क्योंकि उनके प्रशासन में बाहरी व्यक्ति (इलॉन मस्क) की भूमिका बनती लग रही है।

मर्केल के अनुसार, ‘16 वर्षों के शासन अनुभवों ने उन्हें सिखाया है कि बिजनेस तथा राजनीतिक हितों में हमेशा फाइन बैलेंस रखना चाहिए। पिछली बार और इस दफा ट्रंप को ले कर फर्क यह है कि अब वे सिलिकॉन वैली की कंपनियों के साथ एलायंस बनाए दिख रहे हैं और यह ठीक नहीं है। जो व्यक्ति (इलॉन मस्क) अंतरिक्ष में घूमते 60 प्रतिशत सेटेलाइटों का मालिक है, वह निश्चित ही राजनीतिक मसलों में हम लोगों के लिए भारी चिंता का विषय होना चाहिए। राजनीति से ही सदैव तय होना चाहिए कि ताकतवर और सामान्य नागरिक में सही सामाजिक संतुलन रहे। सन् 2007-08 में वैश्विक वित्तीय संकट पैदा हुआ तो बतौर जर्मनी की चांसलर मैंने अपनी राजनीतिक वजूद की अंतिम ऑथोरिटी से ही चीजें ठीक की थी, नए नियमों व बेलआउट के फैसले किए। लेकिन यदि फाइनल ऑथोरिटी कंपनियों (फिर भले पूंजी की ताकत या तकनीकी ताकत वाली हो) से प्रभावित हुई तो यह भविष्य के लिए चुनौतीपूर्ण होगा। आजाद समाजों का एक बेंचमार्क है जो वे कॉरपोरेट पॉवर तथा अल्ट्रा रिच (खरबपतियों) के प्रभाव में नहीं हुआ करते। लोकतंत्र में कभी भी कंपनियों के आगे राजनीति शक्तिहीन नहीं होती’। (In a democracy, politics is never powerless against companies)

ध्यान रहे जर्मनी पूंजी और तकनीक की श्रेष्ठता से विकसित देश है। वैसे ही जैसे जापान या अमेरिका (अभी तक तो), ऑस्ट्रेलिया आदि हैं। इन महाविकसित लोकतांत्रिक देशों में राजनीति और शासन कभी भी किसी क्रोनी पूंजीवादी की पैरोकारी में बदनाम नहीं हुए। आम नागरिक के समान ही वहां खरबपतियों की हैसियत है। किसी भी देश और प्रधानमंत्री का यह राजधर्म कभी नहीं हुआ जो वह दुनिया की राजधानियों में अपने चहेते उद्योगपति को ठेके दिलाए और फिर उस उद्योगपति से पूरा देश कलंकित हो। उद्योगपति आते-जाते रहते हैं तो कैसे कोई देश ऐसे नारे लगाएगा कि जब तक सूरज चांद रहेगा तब तक अडानी तेरा नाम रहेगा! लेकिन नरेंद्र मोदी ने गौतम अडानी का ऐसा पत्थर अपने गले और देश के गले में बांधा है कि केन्या, बांग्लादेश, श्रीलंका, ऑस्ट्रेलिया और दुनिया के पूंजी बाजारों में यह हल्ला बन गया है कि ‘भ्रष्ट भारतीय आखिरकार यहां भी आ गया’!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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