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मनोरंजन के नाम पर यह क्या?

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पता नहीं यह आंकड़ा कितना सही या गलत है कि भारत में 78 प्रतिशत लोग अपना समय फोन ऐप, Social media पर गुजारते हैं! भारत के लोग सालाना 13 अरब घंटे तो सिर्फ ऑनलाइन स्पोर्ट्स में जाया करते हैं। मतलब दुनिया में सर्वाधिक। भारत का मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र सन् 2026 तक 3.08 खरब रुपए का होगा। इसमें क्रिकेट, फिल्म, मनोरंजन चैनलों और सोशल मीडिया तथा सैर सपाटे और खानपान के टाइमपास का यदि कुल जोड़ बनाएं तो समझ नहीं आएगा कि भारत के 140 करोड़ क्या तो काम कर रहे हैं, क्या खेल रहे हैं, और उनके नसीब में कैसा मनोरंजन है?

आज खबर है फिल्म ‘पुष्पा 2’ ने पहले ही दिन बॉक्स ऑफिस पर आग लगा दी, सारी फिल्मों के रिकॉर्ड को धूल चटा दी! मेरी न गैर-हिंदी फिल्मों से एलर्जी है और न बॉलीवुड की मसाला, एक्शन फिल्मों से एलर्जी है। उलटे मुझे लगता है कि हिंदी फिल्मों (दक्षिण भारत की भी) में कहानी, कंटेंट के सूखे के साथ राजनीतिक साये से इन दिनों जैसी बरबादी है तो साउथ की फिल्मों का जलवा बनना ठीक ही है। बावजूद इसके ‘बाहुबली’ से ले कर ‘पुष्पा 2’ के सिलसिले में ले दे कर तो स्क्रीन के आगे सुनहले सपनों के तीन घंटों का टाइमपास है। और यह टाइमपास ही 140 करोड़ लोगों की भीड़ की भदेस जिंदगी को धक्का है। भेड़ चाल है। इसका प्रमोटर-निर्देशक सोशल मीडिया है। इसमें बुद्धि और क्लासिक जैसा कुछ भी नहीं है। न ही लोगों के दिल-दिमाग और जिंदगी में कोई परिष्कार है।

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सोचें, हम भारतीय (हिंदू) युगों से पुराण, कथाओं और कहानियों में समय गुजार रहे हैं। कथाओं के प्रवचन हो या रामलीला या कृष्णलीला, इसकी आदत व स्वभाव ने ही जब सिनेमा आया तो तीन घंटे की कहानी (फिल्म) का चस्का बनाया। हम दुनिया के सबसे बड़े फिल्म निर्माता हुए। लेकिन फिर भी कहानी (मौलिक, नई) लिखने, बनाने के कौशल में आज भी फिसड्डी हैं। तभी ‘मुगलेआजम’, ‘शोले’, ‘बाहुबली’, ‘जवान’ और ‘पुष्पा’ का सिलसिला! ये फिल्में हमारे फिल्म उद्योग की कुल प्राप्तियों का पर्याय हैं। एक भी भारतीय कहानी को वैश्विक पैमाने का ऑस्कर नहीं है। अब तो यह भी आश्चर्य जो कोरियाई, जापानी, तुर्की फिल्में वैश्विक दर्जा पाते हुए हैं वही बॉलीवुड तेलुगू फिल्म ‘पुष्पा’ पर नाचता हुआ है!

ऐसी दशा मनोरंजन के बाकी क्षेत्रों में भी है। खेलकूद में है। खेलकूद में क्रिकेट के टाइमपास के अलावा क्या है? सांस्कृतिकता में हालात यह है कि स्थापत्य, कला, संस्कृति की न प्राचीन धरोहरों का कायदे से सरंक्षण है और उनको संवारना है। न उसका वैश्विक प्रचार है। यह देख हैरानी होती है कि सऊदी अरब, ओमान, कतर जैसे देश रेगिस्तान के अपने खंडहरों या तुर्की अपनी प्राचीन संस्कृति के उत्खनन की वैश्विक मार्केटिंग करके करोड़ों की संख्या में विदेशियों की अपने इतिहास में दिलचस्पी पैदा किए हुए है वहीं भारत में कश्मीर घाटी के मार्तंड मंदिर के विशाल खंडहर से ले कर चित्तौड़गढ़ और हंपी जैसी स्थापत्य श्रेष्ठता की मार्केटिंग नहीं कर सकता।

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शायद इसलिए भी कि आखिर दुनिया में प्रचार हो भी तो पर्यटन का वह आधार कहां है, जिससे लोगों की इतिहास की, हिंदू सभ्यता-संस्कृति की भारत यात्रा हो सके।

कुल मिलाकर मसला आबोहवा और उस बुद्धिहीनता और परिवेश का है, जिसमें सब कुछ सूखता और बंजर होता हुआ है। इसके चलते क्या तो अच्छी हवा में सांस लें, अच्छा पढ़ें तथा क्यों जिंदगी को असल वैयक्तिक अर्थों में जीयें!

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