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श्मशान घाटों की भी चिंता करों

श्मशान घाटों की दुर्दशा पर बहुत समाचार नहीं छपते। यह एक गंभीर विषय है और आश्चर्य की बात है कि मरते सब हैं पर मौत की बात करने से भी हमें डर लगता है। शोक के मौके पर शवयात्रा में आये लोग श्मशान की दुर्दशा पर बहस करने के लिये बहुत उत्साहित नहीं होते। जैसा भी व्यवहार मिले, सहकर चुपचाप निकल जाते हैं। पर एक टीस तो मन में रह ही जाती है कि हमारे प्रियजन की विदाई का अंतिम क्षण ऐसी अव्यवस्था में क्यों गुजरा? क्या इससे बेहतर व्यवस्था नहीं हो सकती थी?

मौत कैसी भी क्यों न हो,  वह परिजनों को भारी पीड़ा देती है। घर का बुजुर्ग अगर चला जाए तो एक ऐसा शून्य छोड़ जाता है जो फिर कभी भरा नहीं जा सकता। उसकी उपस्थिति का कई महीनों तक परिवारजनों को आभास होता रहता है। उसकी दिनचर्या को याद कर परिजन दिन में कई बार आंसू बहा लेते हैं। घर में कोई उत्सव, मांगलिक कार्य या अनुष्ठान हो तो अपने बिछुड़े परिजन की याद बरबस आ जाती है। जब मृतकों की स्मृति के लिये इतना कुछ किया जाता है तो जब कोई अपना जीवन समाप्त कर अंतिम यात्रा को प्रस्थान करता है उस समय परिजनों के हृदय की व्यथा शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती। घर में जैसे ही मौत होती है पहली प्रतिक्रिया तो आघात की होती है।

सारा परिवार महाशोक में डूब जाता है। फिर तुरंत ही अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू कर दी जाती है। जीते जी हम अपने प्रियजन को कितना ही प्यार क्यों न करते रहे हों उसकी मौत के बाद, शव को कोई बहुत समय तक घर में नहीं रखना चाहता। अर्थी सजाने से लेकर श्मशान जाने तक का कार्यक्रम बहुत व्यस्त कर देने वाला होता है। जहां घर की महिलायें रुदन और विलाप में लगी होती हैं वहीं पुरुष सब व्यवस्था में जुट जाते हैं। अपनी क्षमता और भावनानुसार लोग अपने प्रियजन की इस अंतिम यात्रा को अधिक से अधिक भव्य बनाने का प्रयास करते हैं।

श्मशान घाटों की दुर्दशा पर बहुत समाचार नहीं छपते। यह एक गंभीर विषय है और आश्चर्य की बात है कि मरते सब हैं पर मौत की बात करने से भी हमें डर लगता है। जब तक किसी के परिवार में ऐसा हादसा न हो वह शायद ही श्मशान तक कभी जाता है। उस मौके पर शवयात्रा में आये लोग श्मशान की दुर्दशा पर बहस करने के लिये बहुत उत्साहित नहीं होते। जैसा भी व्यवहार मिले, सहकर चुपचाप निकल जाते हैं। पर एक टीस तो मन में रह ही जाती है कि हमारे प्रियजन की विदाई का अंतिम क्षण ऐसी अव्यवस्था में क्यों गुजरा? क्या इससे बेहतर व्यवस्था नहीं हो सकती थी?

प्लास्टिक के लिफाफे, अगरबत्तियों के डब्बे, घी के खाली डिब्बे, टूटे नारियल, टूटे घड़ों के ठीकरे जैसे तमाम सामान गंदगी फैलाये रहते हैं जिन्हें महीनों कोई नहीं उठाता। उन पर पशु पक्षी मंडराते रहते हैं। जहां शव लाकर रखा जाता है वह चबूतरा प्रायः बहुत सम्माननीय स्थिति में नहीं होता। उसका टूटा पलस्तर और उस पर पड़ी पक्षियों की बीट जैसी गंदगी परिजनों का दिल तोड़ देती है। सबसे ज्यादा तो श्मशानघाट के व्यवस्थापकों का रूखा व्यवहार चुभता है।

यह ठीक है कि नित्य शवयात्राओं को संभालते-संभालते उनकी चमड़ी काफी मोटी हो जाती है और भावनायें शून्य हो जाती हैं, पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिये कि जिन लोगों से उनका रोज सामना होता है उनके लिये यह कोई रोज घटने वाली सामान्य घटना नहीं होती। टूटे मन, बहते नयन और बोझिल कदमों से चलते हुए लोग जब श्मशान घाट के व्यवस्थापकों से मिलते हैं तो उन्हें स्नेह, करुणा, ढांढस और  हर तरह के सहयोग की तत्परता का भाव मिलना चाहिये।

दुर्भाग्य से हम हिन्दू होने का गर्व तो करते हैं पर अपने श्मशान घाटों को कसाईखाने की तरह चलाते हैं। जबकि पश्चिमी देशों में कब्रिस्तान तक जाने की यात्रा में चर्च और समाज की भूमिका अनुकरणीय होती है। वहां तो हर सामुदायिक केन्द्र के पुस्तकालय में एक विशेष खण्ड ऐसी पुस्तकों का होता है जिसमें मृत्यु से जूझने के नुस्खे बताये जाते हैं। यह तो पश्चिमी समाज की बात है जहां संयुक्त परिवार और शेष समाज अब आपके जीवन में दखल नहीं देते। पर भारतीय समाज में ऐसा शायद ही होता हो कि किसी के घर मौत हो और उसे स्थिति से अकेले निपटना पड़े। उसके नातेदार और मित्र बड़ी तत्परता से उस परिवार की सेवा में जुट जाते हैं और कई दिन तक उस परिवार को सांत्वना देने आते रहते हैं।

इसलिये हमारे समाज में श्मशान घाट का ऐसा विद्रूपी चेहरा तो और भी शर्म की बात है। पर ऐसा है, यह भी मृत्यु की तरह एक अटल सत्य है। इस मामले में आशा की किरण जगाई है देश के अनेक प्रांतों के कुछ शहरों के उन उत्साही दानवीर लोगों ने जिन्होंने सामान्य से भी आगे बढ़कर श्मशान घाट को एक दर्शनीय स्थल बना दिया है। जामनगर, मथुरा, दिल्ली जैसे अनेक शहरों में ये कार्य बड़े पैमाने पर हुआ है। इसी संदर्भ में श्मशान घाटों को पर्यावरण की दृष्टि से विकसित किए जाने की एक नयी पहल हरियाणा में हुई है।

पिछले सप्ताह मुझे हरियाणा के एक आईएएस अधिकारी का संदेश आया जिसमें उन्होंने इस बात पर चिंता जताई कि हरियाणा में प्रति व्यक्ति केवल 1.33 पेड़ हैं, जबकि दाह संस्कार के लिए प्रति व्यक्ति 2 पेड़ों की आवश्यकता होती है। उन्होंने कम लागत वाले ग्रीन शवदाहगृहों को बढ़ावा देने के लिए हरियाणा मानवाधिकार आयोग में एक याचिका दायर की और आयोग ने उनके पक्ष में ग्रीन शवदाहगृह बनाने के संबंध में एक आदेश जारी किया। जो शरीर की वसा को 760 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करने और फिर शरीर की वसा से शव का दाह संस्कार करने के लिए केवल 60 किलोग्राम जैव ईंधन का उपयोग करके एसपीएम, उत्सर्जन और राख को 85% तक कम करता है। यहाँ एक अच्छी पहल है।

उम्मीद है कि अब हरियाणा सरकार इस मुद्दे को उठाएगी, जिससे दाह संस्कार की लागत 90% कम होकर मात्र 1100/- रुपये ही रह जाएगी। सिरसा, फतेहाबाद, भटिंडा, फाजलिका, अबोहर आदि में पहले से ही 750 से अधिक ऐसे हरित शवदाह गृह कार्य कर रहे हैं। यदि यह प्रयोग एक राज्य में कामयाब हो सकता है तो भारत में सभी दाह संस्कार हरित शवदाह गृह में परिवर्तित हो सकते हैं।

इन हरित शवदाह गृहों के निर्माण पर मात्र 4 लाख रुपये की लागत आती है और इसे उसी चिता स्थान पर बनाया जा सकता है। इसका निर्माण ऐसा हो कि खराब मौसम में भी इसका उपयोग किया जा सके तथा दुर्गंध को भी दूर किया जा सके। राज्य और केंद्र की सरकारों को इस विषय पर ध्यान देने की ज़रूरत है, जिससे कि दाह संस्कार के लिए हरित विकल्प के बारे में सोचा जा सके। यह सार्वजनिक हित का कार्य है अतः इसके लिये अपने क्षेत्र के सांसद और विधायकों की विकास राशि से भी मदद ली जा सकती है। पर सरकारी धन पर निर्भर रहने से बेहतर होगा कि लोग निज प्रयासों से इस काम को पूरा करें।

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