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यूक्रेन युद्ध के बीच भारत का क्या रोल?

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हकीकत यह है कि यूक्रेन यात्रा का एलान मोदी की रूस यात्रा पर पश्चिम में हुई तीखी प्रतिक्रिया की पृष्ठभूमि के बीच किया गया था। आरंभ में इसको लेकर अपेक्षाएं बढ़ाई भी गईं। अब उन्हें संभवतः इसलिए नियंत्रित को सोचा गया है, क्योंकि ये हकीकत सामने है कि इस यात्रा से कुछ हासिल नहीं होने वाला है।

यह स्वागतयोग्य है कि भारत सरकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूक्रेन को लेकर उम्मीदों और अटकलों का बाजार ठंडा करने की कोशिश की है। 23 अगस्त को होने वाली मोदी की इस यात्रा की पुष्टि 19 अगस्त को की गई। उसी रोज भारतीय विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने मीडिया ब्रीफिंग में यह स्पष्ट किया कि इस यात्रा का मकसद यूक्रेन और रूस के बीच प्रत्यक्ष मध्यस्थता करना नहीं है। वैसे इस बारे में भारत का कोई आधिकारिक बयान नहीं है।

उधर पश्चिमी कूटनीतिज्ञों ने संभावना जताई है कि भारत दोनों देशों के बीच संदेशों के आदान-प्रदान का माध्यम बन सकता है। विदेश मंत्री एस जयशंकर पहले कुछ मौकों पर यह कह चुके हैं कि भारत ने संवेदशवाहक की भूमिका निभाई है। काला सागर अनाज समझौते और जापोरिझिया परमाणु संयंत्र के मुद्दे पर ऐसा रोल भारत ने निभाया था। जयशंकर ने कहा था- ‘हम वो देश हैं, जिसने रूसी नेताओं के साथ इस (यूक्रेन युद्ध) मुद्दे पर खुल कर और दो टूक बात की है। विभिन्न पहलुओं पर दूसरे देशों ने हमारा इस्तेमाल संदेश भेजने के लिए किया है।’

अब यह बात बहुत से लोगों को नागवार गुजर सकती है कि भारत की भूमिका विभिन्न देश आज एक संदेशवाहक के रूप में देखते हैं। इसलिए कि जो देश विश्व कूटनीति में अपनी खास आवाज और नजरिया रखते हैं, वे दूसरों के संदेशों को अन्य देशों तक नहीं पहुंचाते। उनके पास देने के लिए अपना संदेश होता है। वैसे भी जिन संदेशों को भारत ने पहुंचाया, आखिर उनसे हासिल क्या हुआ है?

फिलस्तीन में गजा नरसंहार और यूक्रेन युद्ध आज दुनिया में दो सबसे बड़े मसले हैं। यूक्रेन युद्ध को समाप्त कराने के लिए कई हलकों से फॉर्मूले पेश किए गए हैं, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी है। बीते जून में स्विट्जरलैंड ने इस मुद्दे पर शांति सम्मेलन का आयोजन किया, मगर बात आगे नहीं बढ़ी, क्योंकि उसमें रूस को आमंत्रित ही नहीं किया गया था। इसके पहले एक बहुचर्चित फॉर्मूला चीन की तरफ से आया, जिसे यूक्रेन और रूस दोनों ने गंभीरता से लिया था। मगर चीन भी अपनी पहल में अब तक कामयाब नहीं हुआ है।

दरअसल, किसी फॉर्मूले पर प्रगति की कोई संभावना नहीं है, जब तक अमेरिका और नाटो सबकी सुरक्षा को समान महत्त्व देने को तैयार नहीं होते हैं। यूक्रेन में युद्ध का बुनियादी कारण रूस की सीमा तक नाटो के विस्तार की अमेरिकी जिद है। रूस को घेरने की उसकी कोशिश में यूक्रेन मोहरा बना है। भारत या कोई अन्य देश इस विवाद के बीच तभी अपनी कोई सार्थक भूमिका बना सकता है, जब उसके पास इस समस्या की यथार्थवादी समझ हो और वह उस समझ को दो टूक कहने का साहस भी दिखाए।

क्या पिछले ढाई साल में भारत ऐसा करता नजर आया है? जाहिर है, नहीं। इसके बदले प्रधानमंत्री ने कुछ जुमले जरूर बोले हैं। मसलन, यह कि ‘यह युद्ध का युग नहीं है’ और ‘आज के दौर में लड़ाई के मैदान पर हार-जीत तय नहीं हो सकती’। ये वाक्य भारत में सुर्खियां बनाने के लिहाज से चाहे जितने प्रभावी रहे हों, विश्व कूटनीति में इनका कोई महत्त्व नहीं है। इसीलिए मोदी की यूक्रेन यात्रा भारत-यूक्रेन द्विपक्षीय संबंध के लिहाज से चाहे जितना अहम हो, रूस-यूक्रेन विवाद के संदर्भ में उससे कुछ हासिल नहीं होने वाला है।

वैसे भी मोदी की यात्रा उस समय हो रही है, जब रूस-यूक्रेन युद्ध में नई तेजी आ गई है। यूक्रेन ने रूस के कुर्क्स इलाके में घुसपैठ कर युद्ध के साये को और घना कर दिया है। यह चर्चा जोरों पर है कि रूस अब इस लड़ाई का स्वरूप ‘विशेष सैनिक कार्रवाई’ से बदल कर पूर्ण युद्ध का एलान कर सकता है। चूंकि कुर्क्स में हमला करने के लिए यूक्रेन ने नाटो से मिले हथियारों और उपकरणों का इस्तेमाल किया है, इसलिए आशंका है कि अब रूस खुल कर आसपास के पश्चिमी ठिकानों को भी निशाना बना सकता है। ऐसा हुआ, तो युद्ध सिर्फ दो देशों तक सिमटा नहीं रह जाएगा।

ऐसी खबरें हैं कि पिछले तीन दिन में रूस ने

वैसे भी रूस की रणनीति यूक्रेन को जल्द से जल्द पराजित करने के बजाय इस टकराव को frozen war की स्थिति में रखने की रही है। वजह रूस का यह आकलन है कि उसकी लड़ाई सिर्फ यूक्रेन से नहीं, बल्कि पूरे नाटो से चल रही है। ऐसे में war of attrition की रणनीति के जरिए पश्चिमी देशों को इसमें उलझाए रखना और इस युद्ध के फलस्वरूप उन देशों में प्रतिकूल परिस्थितियों को और गंभीर बनाना रूस के दीर्घकालिक उद्देश्य के लिहाज से अधिक लाभदायक है। यह तो तथ्य है कि इस युद्ध के कारण अपने देशों में यूरोपीय शासकों की चुनौतियां लगातार बढ़ती गई हैं। उधर अमेरिका में वैसा ही मत विभाजन गजा मे जारी इजराइली नरसंहार ने पैदा किया है। पश्चिम के इन राजनीतिक संकटों को रूस अपने हित में मानता है। अच्छी बात है कि इस जटिल स्थिति का अहसास भारत की विदेश नीति के निर्माताओं को हुआ है और उन्होंने मोदी की यात्रा को लेकर अपेक्षाएं ना बढ़ाने की रणनीति अपनाई है। इसके बावजूद हकीकत यह है कि यूक्रेन यात्रा का एलान मोदी की रूस यात्रा पर पश्चिम में हुई तीखी प्रतिक्रिया की पृष्ठभूमि के बीच किया गया था। आरंभ में इसको लेकर अपेक्षाएं बढ़ाई भी गईं। अब उन्हें संभवतः इसलिए नियंत्रित को सोचा गया है, क्योंकि ये हकीकत सामने है कि इस यात्रा से कुछ हासिल नहीं होने वाला है।

 

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