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कर्म की सक्रिय व संयमित धारा यमुना

यमुना

वेद और वैदिक साहित्य में गंगा, यमुना, सरस्वती और अन्य नदियों का उल्लेख प्रतीकात्मक रूप से हुआ है। यह नाम केवल भौगोलिक नदियों के संकेतक नहीं है, बल्कि गहरी आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक अर्थ लिए हुए हैं। वेद में नदियों को मानव चेतना, शरीर और आत्मा के परिष्करण की धारा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ऋग्वेद में एक ही स्थान पर पृथ्वी पर बहने वाली दस नदियों का वर्णन शरीर में अवस्थित दस नाड़ियों के संदर्भ में किया गया है।

3 अप्रैल -यमुना जयंती

भारत में प्रकृति के विभिन्न रूपों के पूजन की वृहत परंपरा रही है। यहां नदियों को भी माता कहकर देवी की भांति पूजा जाता है। उनकी जयंती मनाई जाती है। चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को यमुना का अवतरण इस भूमि पर होने की मान्यता होने के कारण इस दिन को यमुना जयंती के नाम से जाना जाता है। और इस दिन यमुना का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इसे यमुना छठ भी कहा जाता है। चैत्र की सूर्य षष्ठी का पहला अर्ध्य भी इस दिन सायं काल में अस्ताचलगामी सूर्य को दी जाती है। इस दिन यमुना स्नान, यौगिक क्रिया, यमुना पूजन, यमुनार्चना, यमुना आरती, दीपदान आदि का विशेष महत्व माना जाता है।

वैदिक मतानुसार पृथ्वी पृष्ठ पर भिन्न-भिन्न रूप और गति से बहने वाली नदियां मानव को लाभ पहुंचाने वाली हैं, उनसे लाभ होना चाहिए। वेदों में गंगा, यमुना, सरस्वती का उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है, लेकिन इसे सिर्फ एक भौगोलिक नदी तक सीमित कर देखना ठीक नहीं, बल्कि इसकी व्यापकता और यौगिक अर्थों को समझने, जानने की आवश्यकता है। वेद और वैदिक साहित्य में गंगा, यमुना, सरस्वती और अन्य नदियों का उल्लेख प्रतीकात्मक रूप से हुआ है। यह नाम केवल भौगोलिक नदियों के संकेतक नहीं है, बल्कि गहरी आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक अर्थ लिए हुए हैं।

वेद में नदियों को मानव चेतना, शरीर और आत्मा के परिष्करण की धारा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ऋग्वेद में एक ही स्थान पर पृथ्वी पर बहने वाली दस नदियों का वर्णन शरीर में अवस्थित दस नाड़ियों के संदर्भ में किया गया है-

इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या ।

असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये शृणुह्या सुषोमया ।।

-ऋग्वेद 10/75/5

अर्थात -हे गंगे, यमुने, सरस्वति, शुतुद्रि, परुष्ण, मरुद्वृधे, वितस्ता, असिक्नी और सुषोमा इनके साथ विद्यमान हे आर्जीकीये! तू हमारे इस स्तुतियोग्य वचन को श्रवण कर।

इस मंत्र में गंगा आदि देहगत दस नाड़ियों का वर्णन है, उनका विशेष वर्णन है। इसमें आत्मा रूप नदी सिन्धु का वर्णन है। लोक में गंगा, यमुना, सरस्वती, परुष्णी, मरुद्वृधा, शुतुद्री, वितस्ता, असिक्नी, सुसोमा और आर्जिकीया ये सब नाम नदियों के प्रसिद्ध हैं। वेद में इन शब्दों का मुख्यार्थ नदियों के प्रति संगत न होने से ये शब्द नदीवाचक नहीं हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से ये दस विशेष नाड़ियां हैं। उन नाड़ियों में व्याप्त आत्मशक्ति भी उसी -उसी नाम से पुकारी जाती है। इसे बृहदारण्यक में आत्मा कहकर अंकित इस वचन से भी समझ जा सकता है-

शुण्वन् श्रोत्रं भवत्ति मनो मन्वानो वाग् वदन् इत्यादि।

संगीतविषये केरललिप्यां हस्तलिखित पुस्तक में कहा गया है-

इड़ा च पिङ्गलाख्या च सुषुम्ना चास्थिजिह्विका । अलम्बुसा यथा पूषा गान्धारी शङ्खिनी कुहूः देहमध्यगता एता मुख्याः स्युर्दश नाडयः।।

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यमुना: कर्म, संयम और आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रतीक

गंगा इड़ा नाड़ी है, वह आत्मा को ज्ञान प्राप्त कराती है, यमुना पिंगला है, जो देह के समस्त अंगों को सुव्यवस्थित करती और संयम में रखती है। सरस्वती सुषुम्ना, उसमें प्रशस्त ज्ञान-सुख का उद्भव होता है, परुष्णी का अर्थ करते हुए निरुक्त में कहा गया है- पर्ववती, भास्वती, कुटिलगामिनी। अर्थात- जो प्रतिपर्व पीठ के मोहरों में से नीचे तक गई है, वह वर्ण में चमकीली कुटिल मार्ग में गई है। असिक्ती का अर्थ करते हुए निरुक्त में कहा है- अशुक्ला, असिता सितमिति वर्गनाम तत्प्रतिषेधः।

अर्थात- जो शुक्ल अर्थात चमकीली नहीं, उसमें जो रस बहता है उसका कोई रंग नहीं है। मरुद्वृधा का अर्थ करते हुए निरुक्त कहता है- सर्वा नद्यो मरुतः एनां वर्धयन्ति। अर्थात- जो और नाड़ियां है वे उसको बढ़ाती हैं, नाड़ी का वह अंश जहां अन्य सब मिल कर एक हो जाती हैं। अथवा मरुत्, देह के प्राण उसको और वह प्राणों को पुष्ट करते हैं।

शुतुद्री का अर्थ करते हुए निरुक्तकार कहता है- शुद्राविणी, क्षिप्रद्राविणी, आशुतुन्ना इव द्रवति। अर्थात- जो वेग से गति करती, भरी-भरी चलती है। वितस्ता का अर्थ निरुक्त इस प्रकार करता है- विदग्धा, विवृद्धा, महाकुला। अर्थात- देह में वितस्ता वह नाड़ी है, जो देह में दाह अर्थात ताप को धारण करती है, वह बहुत व्यापक और त्वचा भर में व्याप्त है।

आर्जीकीया का अर्थ करते हुए निरुक्त में कहा है- ऋजूकप्रभवा वा, ऋजुगामिनी वा। अर्थात- ऋजूक से उत्पन्न, वा ऋजु जाने वाली, मस्तक में विशेष स्थान ऋजूक है। उससे निकली नाड़ी वितस्ता है। विपाट् का अर्थ निरुक्त में इस प्रकार किया गया है- विपाटनाद्वा, विपाशनाद्वा, पाशा अस्यां व्यापाश्यन्त वसिष्ठस्य मूमूर्च्छतस्तस्माद् विपाट् उच्यते। अर्थात- विपाट् वह नाड़ी है जहां विपाटन होता है, जिस के फटने पर प्राण देह को त्याग देते हैं और आत्मा देह से पृथक हो जाता है, उसी का प्राचीन नाम उरुंजिरा है।

सुषोमा उत्तम प्रेरणा वाली अथवा उत्तम वीर्य वाली वीर्यवहा नाड़ी अथवा जो अंगों में शक्ति प्रदान करे। सिन्धु का अर्थ निरुक्त में इस प्रकार किया गया है- सिन्धुः यदेनामभिप्रसुवन्ति नद्यः । सिन्धुः स्यन्दनात्। अर्थात- सब नदियां जैसे सिन्धु में आती हैं, ऐसे समस्त प्राण जिसमें आकर लय हो जाते हैं वह आत्मा ही सिन्धु है। वह एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हुए महानद के समान जाता है।

इसलिए सिन्धु कहाता है। देह ही देश के तुल्य क्षेत्र कहाता है। -सा मे आत्माभूत् इति सोमः। सोम मेरा अपना ही आत्मा है ऐसा ब्राह्मणप्रोक्त निर्वचन है, इससे सुषोमा स्वयं आत्मा रूप नदी है। आत्मा का नदीरूप से वर्णन करते हुए महाभारत में कहा गया है-  आत्मा नदी संयम-पुण्यतीर्था, सत्योदका, शीलतटा दयोर्मिः। इत्यादि भिन्न- भिन्न स्थिति में यहां इन नामों से आत्मा को ही सम्बोधन किया गया है।

ऋग्वेद 10/75/5 के मंत्र में गंगे यमुने सरस्वति इन तीन सम्बोधन शब्दों से गति, संयम व ज्ञान का प्रतिपादन है। गंगा शब्द गम् से और यमुना शब्द यम् से बना है। गंगा, अर्थात गति, क्रियाशीलता। अपनी तीव्र गति के कारण ही गंगा नदी का जल पवित्र है, क्रियाशीलता हमें भी पवित्र बनाती है। हमारे शरीर सदा क्रियाशील हों, तो मन संयम की भावना से ओत-प्रोत हो । यमुना, अर्थात यमन, संयम। हम मन को निरुद्ध करनेवाले हों। सरस्वती तो ज्ञान की अधिष्ठात्री है ही।

हमारा मस्तिष्क ज्ञानान्वित हो। वस्तुतः मंत्र में क्रियाशीलता, संयम, ज्ञान, वासना-विद्रावण, शुभ भावनाओं का पूरण, विषयों से अबद्धता, प्राणशक्ति, रोग व राग-द्वेषादि अशुभः क्षय, स्वस्थता व सबलता और विनीतता आदि से युक्त बनने के लिए परमात्मा से स्तुति की गई है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि गंगा पवित्रता और चेतन की उर्ध्वगामी धारा है। गंगा शब्द का यौगिक अर्थ है -गम् + गम्यते अर्थात जो गमन शील है, जो ऊपर की ओर प्रवाहित होती है। आध्यात्मिक दृष्टि से गंगा का संबंध इड़ा नाड़ी से है। योग शास्त्र में यह नाड़ी चंद्र ऊर्जा का प्रतीक है, जो शीतल, शांत और पवित्र चेतन की धारा है। यह नाड़ी शरीर के बाई ओर प्रवाहित होती है और मानसिक स्थिरता एवं पवित्रता को बढ़ाती है। गंगा के गूढ़ तात्पर्य हैं -चेतना की शुद्धि। गंगा पवित्र जल की तरह मन और आत्मा की अशुद्धियों को दूर करती है। प्रकाश मय विचार लाती है। गंगा का प्रवाह सतोगुण का प्रतीक है।

यह साधक को पवित्र चिंतन और आत्मिक शांति की ओर ले जाती है। यमुना शब्द का अर्थ हैं यम+ऊना अर्थात नियंत्रित प्रवाह। यह कर्म और ऊर्जा का प्रतीक है। आध्यात्मिक अर्थ में यमुना का संबंध पिंगला नाड़ी से है। यह सूर्य ऊर्जा का प्रतीक है, जो शरीर के दाहिने भाग में प्रवाहित होती है।

यह नाड़ी कर्म, उत्साह और ऊर्जस्वित विचारों का संचार करती है। यमुना के गूढ़ तात्पर्य ,कर्म प्रधान जीवन, यमुना जीवन में प्रवाह और गतिशीलता का प्रतीक है। यह कर्म के महत्व को दर्शाती है। ऊर्जा संतुलन, यमुना का प्रवाह रजोगुण का प्रतीक है, जो जीवन के कर्मशील पक्ष को जागृत करता है। गंगा यमुना संगम अर्थात इड़ा और पिंगला का मिलन। गंगा और यमुना का संगम प्रयाग में माना जाता है, परंतु वेदों में इसका प्रतीकात्मक अर्थ गहरी योग दर्शन से जुड़ा है। संगम गंगा (इड़ा) और यमुना (पिंगला) का मिलन सुषुम्ना नाड़ी में होता है।

सुषुम्ना नाड़ी शरीर के मध्य में स्थित होती है और आध्यात्मिक जागरण के लिए महत्वपूर्ण है। योग साधना में जब इड़ा और पिंगला का संतुलन होता है, तब चेतना सुषुम्ना में प्रवाहित होती है। और साधक को आत्मज्ञान प्राप्त होता है। प्रतीकात्मक दृष्टि से संगम अर्थात शरीर मन और आत्मा का संतुलन गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन मानव चेतना की उच्चतम स्थिति का प्रतीक है। मोक्ष प्राप्ति का यही अर्थ है। यही वह तीर्थ है जहां स्नान अर्थात योग साधना करने से आत्मज्ञान और मोक्ष प्राप्त होता है। वस्तुतः यमुना कर्म की सक्रिय धारा है।

पौराणिक मान्यतानुसार यमुना प्राकट्य रूप में भुवनभास्कर सूर्यदेव की पुत्री है। मृत्यु के देवता यमराज इनके अग्रज और शनिदेव अनुज हैं। यमुना भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी थी। ब्रज क्षेत्र में यमुना को माता के समान मानकर इन्हें यमुना मैया कह कर संबोधित किया जाता है, पूजा जाता है। यमुना अपने भक्तों के पापों का नाश करके उन्हें निर्मल बना देती है। उत्तराखंड में यमुनोत्री से निकलकर ब्रजमंडल की नीलमणिमय मेखला (करधनी) की भांति सुशोभित होते हुए तीर्थराज प्रयाग तक प्रवाहित होने वाली यमुना नदी को यमुना देवी के रूप में पूजा जाता है।

नदी के रूप में यमुना का उद्गम स्थल हिमालय के हिमाच्छादित शृंग बंदरपुच्छ में स्थित कालिंद पर्वत है। इसलिए यमुना को कालिंदजा अथवा कालिंदी भी कहा जाता है। यमुना स्नान, यौगिक क्रिया, यमुना पूजन, यमुनार्चना, यमुना आरती, दीपदान का विशेष महत्व माना जाता है। पौराणिक ग्रंथों में मानव व नदीवत दोनों ही रूपों में यमुना का वर्णन हुआ  है। पुराण, संहिता ग्रंथ, रामायण, महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में यमुना के माहात्म्य, प्राकट्य, यमुना जल के श्याम वर्ण होने, इसके प्रवाह क्षेत्र, यमुना के नाम, जप, स्मरण पूजन की महिमागान विस्तृत रूप में की गई है। गर्ग संहिता में यमुना के पचांग में पटल पद्धति, कवय, स्तोत्र, सहस्त्रनाम भी अंकित है।

Pic Credit: ANI

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