हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठन अब सक्रिय नही हैं। यह एक बड़ा बदलाव कश्मीर में हुआ है। जिससे आम कश्मीरी के अंदर का डर समाप्त हुआ है और लोग अब चुनाव से दूर भागने की जगह चुनाव आदि में हिस्सा ले रहे हैं। एक सुरक्षित वातावरण मिलने के बाद आम आदमी अपने को सुरक्षित महसूस कर रहा है।… हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठन अब इतिहास का हिस्सा हो चुके और उनका नाम लेने तक को भी कोई तैयार नही है। जमायते इस्लामी जैसे संगठन अब चुनाव में भागीदारी की बात करने लगे हैं।
हाल ही में हुए कुछ आतंकवादी हमलों के बावजूद जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव की घोषणा कर चुनाव आयोग ने एक बड़ा और साहसिक फैसला लिया है इसके लिए आयोग मुबारकबाद का पात्र है। इस निर्णय से यहां आतंकवादियों के इरादों को जबरदस्त धक्का लगा है वहीं उन तत्वों की भी हार हुई है जो पिछले दिनों के आतंकवादी हमलों का हौव्वा खड़ा कर प्रदेश में चुनाव न करवाए जाने का एक माहौल बनाने में जुटे हुए थे। आतंकवादी हमलों का डर ऐसे लोगों द्वारा खड़ा किया जा रहा था जो जम्मू-कश्मीर के ज़मीनी हालात से न तो परिचित हैं और न ही आतंकवाद और आतंकवादियों की कार्यशैली को ठीक से समझते हैं। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद 1989-1990 से है और प्रदेश ने आतंकवाद के कई रूप देखे हैं।
दरअसल लोकसभा चुनाव में जो जबरदस्त मतदान हुआ था और जिस शानदार ढ़ग से चुनाव संपन्न हुए थे उसके बाद कोई कारण शेष बचता नही था कि प्रदेश में और अधिक समय के लिए विधानसभा चुनाव को टाला जाता। आतंकवादी और अलगवावादी तत्व लोकसभा चुनाव में आम लोगों की भारी भागीदारी से बौखलाए हुए थे। हर लिहाज से विधानसभा चुनाव के लिए समय व माहौल अनुकूल था। ऐसे में चुनाव आयोग से यही उम्मीद थी कि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव को और अधिक न टाला जाए।
कुछ लोगों को यह सरकारी भाषा लग सकती है, मगर सच्चाई यही है कि लगभग 37 साल के बाद बिना किसी डर और खौफ के लोगों ने इस बार के लोकसभा चुनाव में अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। वर्षों बाद कश्मीर के लोगों ने लोकसभा चुनाव के दौरान दिल से खुल कर मतदान किया। अपना वोट डालने के लिए मतदाताओं को किसी भी तरह की रुकावट का सामना नहीं करना पड़ा, क्योंकि 1987 के विधानसभा चुनाव के बाद पहला मौका था जब किसी भी तरह के चुनावी बहिष्कार का आह्वान सामने नही था।
लोगों को जब सुरक्षित माहौल मिला तो लोगों ने निराश भी नही किया और वे बेखौफ होकर मतदान करने निकले। आतंकवाद के गढ़ माने जाने वाले सोपोर सहित कई इलाकों में भारी संख्या में लोगों ने मतदान किया जबकि कुछ समय पहले तक इन इलाकों में कोई चुनावी पोस्टर भी नही लगने दिया जाता था ।
ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठन अब सक्रिय नही हैं। यह एक बड़ा बदलाव कश्मीर में हुआ है। जिससे आम कश्मीरी के अंदर का डर समाप्त हुआ है और लोग अब चुनाव से दूर भागने की जगह चुनाव आदि में हिस्सा ले रहे हैं। एक सुरक्षित वातावरण मिलने के बाद आम आदमी अपने को सुरक्षित महसूस कर रहा है। आंकड़े बताते है कि कश्मीर घाटी की तीनों लोकसभा सीटों पर इस बार बहुत ही अच्छा मतदान हुआ और पिछले कई रिकॉर्ड टूटे। बारामूला में इस बार 59 प्रतिशत, श्रीनगर में 38 प्रतिशत और अनंतनाग-राजौरी सीट पर 53 प्रतिशत मतदान हुआ।
खत्म हुई है दहशत
जम्मू-कश्मीर के हालात पर बात करते हुए समय आतंकवाद और हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठनों के बीच के महीन भेद को समझना बहुत आवश्यक है। बड़े से बड़े आतंकवादी हमले का ज़मीन पर असर कुछ दिन रहता है और फिर लोग उसे अपना मुकद्दर समझ कर अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त हो जाते हैं। मगर आतंकवादी हमलों के ठीक विपरीत हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठन बड़ी बारीकी व चालाकी के साथ लंबे समय तक दहशत का माहौल बनाए रखने में कहीं न कहीं कामयाब रहा करते थे। लगभग सभी चुनावों के बहिष्कार का आह्वान किया जाना इसी रणनीति का हिस्सा रहता था।
जम्मू-कश्मीर के हालात में जो सबसे बड़ा बदलाव आया है वह उन संगठनों को निष्क्रिय कर देने से संभव हुआ है जो आतंकवाद के मददगार थे और एक डर व खौफ का माहौल बनाए रखते थे । इन संगठनों में हुर्रियत कांफ्रेंस एक ऐसा बड़ा नाम था जिसके हाथ में बंदूक तो नही थी मगर हुर्रियत के नेताओं के ब्यान और आए दिन बंद के आह्वान से वातावरण में एक अजीब सी बेचैनी और खौफ हमेशा बना रहता था। आम आदमी उसी खौफज़दा माहौल में अपनी जिंदगी गुजारने को मजबूर था।
हुर्रियत कांफ्रेंस और उसके जैसे कुछ अन्य अलगाववादी संगठनों का आज अपना कोई अस्तित्व तक नहीं बचा है। । हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठन अब इतिहास का हिस्सा हो चुके और उनका नाम लेने तक को भी कोई तैयार नही है। जमायते इस्लामी जैसे संगठन अब चुनाव में भागीदारी की बात करने लगे हैं। मीरवायज़ मौलवी फारूक सहित अन्य कई अलगवादी नेताओं के सुर बदले हुए हैं।
केंद्र सरकार की बड़ी सफलता यह रही है कि उसने आतंकवाद से निपटने के लिए जो दृढ़ता दिखाई है उसमें एक निरंतरता रही है। अगर एक तरफ आतंकवादियों और आतंकवादी संगठनों पर सख्ती की गई है तो साथ ही साथ उनके समर्थकों को भी बख्शा नही गया है
सरकार की कई मामलों में आलोचना करने में मुखर रहने वाले जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला सहित कश्मीर के कई राजनीतिक नेता इस बात को मानते हैं कि कुछ वर्षों से हालात में लगातार सुधार हुआ है। कानून व व्यवस्था कई अन्य प्रदेशों की तुलना में बहुत ही अच्छी है।
आतंकवाद का रंग बदलता रहा है
यह सही है कि हाल के दिनों में हुए आतंकवादी हमलों ने कुछ हद तक चिंताएं ज़रूर बढ़ा दी थीं मगर जो जम्मू-कश्मीर के हालात से परिचित हैं और जिन लोगों ने आतंकवाद के साए में अपना जीवन जिया है, उनके लिए हर आतंकवादी हमला एक तरह का इम्तिहान है। हमें हालात का जाएज़ा लेते समय अपने चश्में और दूरबीन को अच्छी तरह से साफ कर स्थिति को देखना व समझना चाहिए। यह एक छद्म युद्ध है।
पिछले दिनों हुए हमले कैसे हुए और सुरक्षा बलों की रणनीति में क्या कमियां रह गई इस पर बात करते समय यह याद रखना चाहिए कि आतंकवाद अपना रंग और समय निरतंर बदलता रहता है। एक ही तरह की रणनीति आतंकवादियों की कभी भी नही रही। सुरक्षा एजेंसियां इन हमलों के कारणों का पता लगाने में जुटी भी हुई हैं, लेकिन यह हमले ऐसे भी नही हैं जो जम्मू-कश्मीर के लिए नए हों और जिनसे किसी भी तरह से विधानसभा चुनाव पर असर पड़ सकता हो। जम्मू-कश्मीर पुलिस और अन्य सुरक्षा बल आतंकवाद से जुझते हुए इतने मजबूत हो चुके हैं कि किसी भी तरह परिस्थिति से कैसे निपटना है, वे भली-भांति जानते हैं।
अन्य सुरक्षा बलों के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर पुलिस हर दिन बहादुरी के साथ आतंकवाद का मुकाबला कर रही है। हमें कम से कम अपने सुरक्षा बलों पर यकीन होना चाहिए और वह भी तब, जब कि हमारे सुरक्षा बलों ने विपरीत हालात में भी हमें कभी निराश नही किया है। सरकार कोई भी रही हो जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ जंग में एक निरतंरता हमेशा बनी रही है। लेकिन विड़बंना यह है कि ऐसे लोग आतंकवाद, हालात और सुरक्षा बलों पर ज्ञान देने लगते हैं जिन्होंने न तो जम्मू-कश्मीर को देखा है और न ही आतंकवाद को समझा है और न ही हालात से वाकिफ हैं।
जम्मू-कश्मीर नब्बे के दशक से इस तरह के और इससे भी अधिक खतरनाक हमलों को देख व झेल चुका है। लेकिन बावजूद इसके बेहद कठिन हालात में भी प्रदेश में चुनाव भी होते रहे हैं । प्रदेश में बेहद विपरीत परिस्थितियों और हुर्रियत कांफ्रेंस के चुनाव बहिष्कार के आह्वान के बावजूद 1996, 2002, 2008 और 2014 के विधानसभा चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हुए हैं ।
लोकतंत्र को ज़िदा रखने के लिए बीते वर्षों में कईं राजनीतिक नेताओं, आम लोगों और सुरक्षा बलों के कर्मियों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी है। सुरक्षा बलों के साथ-साथ यह आम लोगों ने भी तमाम तरह की विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कश्मीर में लोकतंत्र को ज़िदा रखा है। चुनाव की अहमियत और उसके प्रति विश्वास कम न हो, इसके लिए स्थानीय लोग, सुरक्षा बल और चुनाव आयोग समान रूप से लगातार प्रयत्नशील रहे हैं।
अगर इतिहास को टटोला जाए तो पता चल सकता है कि 1996 के विधानसभा चुनाव में कई जगह चुनाव लड़ने तक को उम्मीदवार तक मिलना मुश्किल थे। बावजूद इसके सुरक्षा बलों ने हालात पर काबू पाया और चुनाव हुए व लोगों ने वोट डाला। हालांकि हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठन पूरी ताकत के साथ चुनाव का बहिष्कार करने का आह्वान कर रहे थे।
हाल के आतंकवादी हमलों को लेकर सिर्फ सरकार की आलोचना करने के इरादे भर से कुछ लोग जिस तरह इन हमलों को बढ़ा-चढ़ा कर बता रहे हैं उससे आतंकवाद का मुकाबला कर रहे सुरक्षा बलों के साथ अन्याय होगा। जम्मू-कश्मीर के हालात ऐसे रहे हैं जिसमें कई तरह के उतार-चढ़ाव समय-समय पर आते रहते हैं। लेकिन यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि प्रदेश के लोगों ने इन हालात के साथ जीना सीख लिया है ।