नव-उदारवाद का दौर आने के साथ सेंटर-लेफ्ट और सेंटर-राइट के बीच फर्क मिटता चला गया। दोनों तरह की पार्टियों में आर्थिक मुद्दों पर आम सहमति बन गई। दोनों बेलगाम पूंजीवाद और मुक्त बाजार की समर्थक हो गईं। उसके बाद वे सामाजिक-सांस्कृतिक एजेंडों के आधार पर अपनी पहचान पेश करने लगीं। सेंटर लेफ्ट का मतलब स्त्री अधिकार, एलजीबीटीक्यू अधिकार, आव्रजन के प्रति उदार नीति, आदि हो गया। सेंटर राइट आरंभ से परंपराओं की पोषक थी। …अब लगभग हर देश में ऐसी पार्टियों से अधिक उग्र रुख अपनाने वाली चरमपंथी पार्टियां उभर आई हैं। नतीजा, नए किस्म का ध्रुवीकरण है।
जर्मनी में रविवार को आए चुनाव नतीजों पर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने कहा- ‘जर्मनी के लोग के लोग no common sense (समझदारी से परे) एजेंडे से ऊब गए थे। खास कर ऊर्जा और आव्रजन के मामलों में ऐसा एजेंडा वर्षों से चल रहा था।’ यहां यह याद कर लेना चाहिए कि बीते नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में अपनी जीत को ट्रंप ने common sense की जीत बताया था।
ट्रंप ने ये प्रतिक्रिया चुनावों में ऑल्टरनेटिव फॉर ड्यूशलैंड (एएफडी) पार्टी को मिली बड़ी सफलता के बाद दी। एएफडी को नव-नाजीवादी पार्टी समझा जाता है। इसके नेता खुलेआम नाजी दौर के नारों का इस्तेमाल करते रहे हैं। पार्टी के उदय की कहानी यह बताई जाती है कि जब पूर्व चांसलर अंगेला मैर्केल ने आव्रजकों के प्रति उदार नीति अपनाते हुए उनके लिए जर्मनी के दरवाजे खुले रहने का एलान इस प्रश्न को उठाते हुए किया था कि इसके अलावा विकल्प क्या है, तो धुर दक्षिणपंथी रुझान वाले एक समूह ने 2013 में “जर्मनी के लिए विकल्प” (ऑल्टरनेटिव फॉर ड्यूशलैंड) नाम की पार्टी का गठन किया। 12 साल बाद अब ये पार्टी जर्मन संसद में दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर सामने आई है।
पार्टी का मुख्य एजेंडा आव्रजकों को जर्मनी से निकालना रहा है। ये चुनाव भी एएफडी ने आव्रजन विरोध और रूस से संबंध बेहतर करने के एजेंडे पर लड़ा। रूस के मामले में पार्टी का रुख है कि निवर्तमान चांसलर ओलोफ शोल्ज की सरकार ने यूक्रेन का पक्ष लेकर जर्मनी की मुश्किलें बढ़ा दीं। इस कारण जर्मनी का सस्ते ऊर्जा का स्रोत हाथ निकल गया। उससे महंगाई बढ़ी, उद्योग धंधे बंद हुए, बेरोजगारी बढ़ी और अर्थव्यवस्था मंदीग्रस्त हो गई।
इस एजेंडे इस चुनाव में मतदाताओं के मन को छुआ है। इस बार एएफडी और वामपंथी पार्टियों- डाइ लिंके (द लेफ्ट) और सारा वागेनेख्त एलायंस को बड़ी संख्या में उन मतदाताओं ने अपनी पसंद बनाया, जो मानते हैं कि जर्मनी आर्थिक बदहाली में है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक एएफडी को वोट देने वाले मतदाताओं में 96 फीसदी मानते हैं कि देश आर्थिक बदहाली में है। कुल मिला कर 83 प्रतिशत मतदाताओं की राय में जर्मनी आर्थिक संकट से ग्रस्त है।
एक समय था, जब सेंटर लेफ्ट पार्टी सोशल डेमोक्रेट्स (एसडीपी) युवाओं की पसंद होती थी। मगर इस चुनाव में एसपीडी की तुलना में तीन गुना ज्यादा नौजवान मतदाताओं ने एएफडी को वोट दिया। दरअसल, लगभग 45 फीसदी युवा मतदाताओं ने या तो धुर दक्षिणपंथी या हार्ड लेफ्ट की पार्टियों के पक्ष में मतदान किया।
(https://x.com/dwnews/status/1893773047896629330)
ये तो बुजुर्ग मतदाताओं का मध्य मार्ग से बचा-खुचा मोह है, जिसकी वजह से सेंटर राइट सीडीसी-सीएसयू गठबंधन पहले नंबर पर आ सका। वरना, जिन युवाओं के सामने अभी अपने भविष्य का सवाल है, जिनकी पूरी जिंदगी अभी बाकी है, उन्होंने दशकों से चल रही ‘लिबरल आम-सहमति’ से खुद को अलग कर लिया है। इस तरह जर्मनी के चुनाव में फिर इस धारणा की पुष्टि हुई है कि चुनावी राजनीति में मध्य मार्ग के दिन लद गए हैं। इसका स्पष्ट कारण है कि इस राजनीति के पास आम जन की समस्याओं का कोई हल नहीं है। जैसे-जैसे ये बात उजागर हुई है, ये पार्टियां जन-समर्थन खोती चली गई हैँ।
फिलहाल, समर्थन ऐसी पार्टियों को मिल रहा है, जो फर्जी हल पेश कर रही हैं। मसलन, एएफडी ने जर्मनी की सारी मुश्किलों का ठीकरा आव्रजकों के माथे फोड़ते हुए अपने लिए जन समर्थन जुटाया है। साथ ही तमाम किस्म की आर्थिक मुश्किलों पर अवसरवादी रुख अपनाते हुए उसने भ्रम पैदा किया है कि वह आम जन की हितैषी है। रूस के प्रति उसका नरम रुख अवसरवाद की ही एक मिसाल है। इसके अलावा उसने डॉनल्ड ट्रंप एवं अन्य धुर दक्षिणपंथी नेताओं की तरह दशकों में विकसित हुए साझा हित के उस विवेक पर हमला किया है, जिससे पूंजी और प्रभुत्वशाली तबकों के आचरण पर लगाम लगी थी। मसलन, ट्रंप की तरह ही एएफडी भी जीवाश्म ऊर्जा का उपयोग घटाने और कल्याणकारी राज्य की धारणा के तहत स्थापित हुए कायदों के खिलाफ मुहिम चलाती रही है। ट्रंप इसे ही common sense बताते हैं।
ऐसे एजेंडे से एएफडी ने मुक्त बाजार की समर्थक फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी (एफडीपी) का समर्थन आधार छीन लिया है। इस चुनाव में एफडीपी महज 4.3 प्रतिशत वोट पा सकी, नतीजतन अगली संसद में उसका एक भी सदस्य नहीं होगा। जर्मनी में संसद में प्रतिनिधित्व पाने के लिए कम-से-कम पांच प्रतिशत वोट लाना अनिवार्य होता है। सीडीयू-सीएसयू अपने मत प्रतिशत में 4.4 प्रतिशत का इजाफा करने में सफल रही, लेकिन ये ज्यादातर वोट एसपीडी की कीमत पर आए। इस गठबंधन को 28.5 प्रतिशत वोट मिले हैं। पिछली बार सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी एसपीडी के वोटों में 9.3 प्रतिशत की गिरावट आई और इस बार वह 16.4 फीसदी वोट ही हासिल कर सकी।
हार्ड लेफ्ट के मत प्रतिशत पर ध्यान दें, तो डाइ लिंके और सारा वागेनेख्त एलायंस को मिला कर लगभग नौ प्रतिशत का इजाफा हुआ है। दोनों ने मिल कर तकरीबन 14 फीसदी मत हासिल किए। पूर्वी जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी से अपना राजनीतिक करियर शुरू करने वालीं सारा वागेनेख्त 2021 के आम चुनाव तक डाइ लिंके में ही थीं। लेकिन यूक्रेन युद्ध में इस पार्टी के नाटो समर्थक रुख लेने के बाद उन्होंने अलग पार्टी बनाई। इस चुनाव में उनका पांच फीसदी वोट हासिल करना एक बड़ी उपलब्धि माना गया है।
तो पैटर्न साफ है। फ्रांस, इटली, स्पेन आदि देशों की तरह ही अब यूरोप के सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश में भी मतदाता धुर दक्षिणपंथ और हार्ड लेफ्ट के बीच गोलबंद होते नजर आए हैं। यह राजनीति में हो रहे नए ध्रुवीकरण का संकेत है। जर्मनी के संदर्भ यह याद करने की बात है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद कायम व्यवस्था में सीडीयू-सीएसयू दक्षिणपंथ और एसपीडी के बीच दक्षिण और वाम का ध्रुवीकरण हुआ था। एसपीडी दुनिया की सबसे पुरानी “वामपंथी” पार्टी है, जिसका गठन 1863 में हुआ। प्रथम विश्व युद्ध के पहले तक इसे समाजवादी विचारों की वाहक माना जाता था। मगर प्रथम विश्व युद्ध के समय उसने जर्मन शासक वर्ग के हितों का पक्ष लिया, जिससे वहां समाजवादी आंदोलन बंट गया। तब से ये पार्टी सेंटर-लेफ्ट एजेंडे पर चलती रही।
नव-उदारवाद का दौर आने के साथ सेंटर-लेफ्ट और सेंटर-राइट के बीच फर्क मिटता चला गया। दोनों तरह की पार्टियों में आर्थिक मुद्दों पर आम सहमति बन गई। दोनों बेलगाम पूंजीवाद और मुक्त बाजार की समर्थक हो गईं। उसके बाद वे सामाजिक-सांस्कृतिक एजेंडों के आधार पर अपनी पहचान पेश करने लगीं। सेंटर लेफ्ट का मतलब स्त्री अधिकार, एलजीबीटीक्यू अधिकार, आव्रजन के प्रति उदार नीति, आदि हो गया। सेंटर राइट आरंभ से परंपराओं की पोषक थी। इस मामले में उसका रुख अधिक उग्र होता चला गया। मगर अब लगभग हर देश में ऐसी पार्टियों से अधिक उग्र रुख अपनाने वाली चरमपंथी पार्टियां उभर आई हैं (अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में परंपरागत सेंटर राइट पार्टियों का ही धुर दक्षिणपंथी दल के रूप में रूपांतरण हो गया है)। इस बीच खुद को आर्थिक मुद्दों पर परिभाषित करने वाली हार्ड लेफ्ट पार्टियों का उदय भी हुआ है। नतीजा, नए किस्म का ध्रुवीकरण है।
हाल में तमाम देशों की चुनावी राजनीति में ये रुझान देखने को मिला है। जिन देशों में हार्ड लेफ्ट का उदय नहीं हुआ, वहां धुर दक्षिणपंथी पार्टी/ पार्टियां चुनौती-विहीन स्थिति में नजर आ रही हैं। बहरहाल, इस सारे घटनाक्रम के पीछे राजनीतिक-अर्थव्यवस्था (political economy) का एक अन्य पक्ष भी है। वह विशुद्ध रूप से आर्थिक है, लेकिन उसके राजनीतिक परिणाम जग-जाहिर हैं।
पूंजीवाद के पैरोकार इस व्यवस्था का औचित्य बताने के लिए इस व्यवस्था में मौजूद रहने वाली कथित प्रतिस्पर्धा एवं कुशलता का तर्क देते हैं। कहा जाता है कि इन दो गुणों के आधार पर पूंजीवादी व्यवस्था आविष्कार और उत्पादकता में निरंतर वृद्धि सुनिश्चित करती है। दलील है कि ऐसा उद्यम को मिली आजादी के कारण होता है, जिससे धन पैदा होता है, जो रिस कर तमाम तबकों तक पहुंचता है। इस तरह ये व्यवस्था सबकी समृद्धि सुनिश्चित करती है।
ऐतिहासिक तौर पर इन तर्कों के पक्ष में तथ्य जुटाना हमेशा मुश्किल रहा है। जो तथ्य दिए जाते हैं, वो उस दौर के हैं, जब पूंजीवादी व्यवस्था के संचालक बाजार नियंत्रण एवं नियोजन की नीतियां सीमित तौर पर अपनाने को मजबूर हुए थे। यह मजबूरी सोवियत क्रांति के बाद दुनिया भर के श्रमिक वर्गों में अपने अधिकारों के लिए आई जागरूकता से पैदा हुई थी। मगर यह मुश्किल से तीन से चार दशकों की कथा है, जिस दौर में विकसित देशों में सचमुच समृद्धि एवं सुविधाओं का व्यापक बंटवारा होता देखा गया था। मगर नव-उदारवाद के दौर में कहानी पलट गई। 2007-08 की महामंदी के बाद तो चीजें उलटी दिशा गई हैं। उसके राजनीतिक परिणाम अब हमारे सामने हैं। जर्मनी में नव-नाजीवाद का शक्तिशाली होना इसी परिघटना का हिस्सा है।(https://thenextrecession.wordpress.com/2025/02/22/germany-drained-of-power-der-kraft-beraubt/)
आज के पूंजीवाद की हकीकत यह है कि उत्पादकता एवं उत्पादकता से जुड़े मुनाफे में लगातार गिरावट हो रही है, आर्थिक गैर-बराबरी में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है, जनता के बड़े हिस्से अधिक से अधिक वंचित होते जा रहे हैं और इन सबके परिणामस्वरूप समाज में तनाव बढ़ रहा है। इसका एक और नतीजा विकसित पूंजीवादी देशों में बढ़ रहा आर्थिक टकराव है। ट्रंप काल में अमेरिका जिस तरह अपने सहयोगी देशों पर दबाव बढ़ा रहा है, वह इसकी ही मिसाल है। वैसे, यह सिर्फ ट्रंप काल की कथा नहीं है।
जो बाइडेन प्रशासन ने यूक्रेन को प्रॉक्सी बना कर रूस से युद्ध छेड़ा, तो उसके पीछे एक मकसद यूरोपीय देशों को अमेरिका पर अधिक निर्भर बनाना भी था। इससे यूरोपीय देश अमेरिका से महंगी ऊर्जा खरीदने को विवश हुए, जिससे उनके यहां उद्योग-धंधे बंद हुए। कुल मिलाकर यूरोप की अर्थव्यवस्था बदहाल हुई। अब ट्रंप खुलेआम शुल्क और रक्षा खर्च के मुद्दे उठा कर यूरोपीय देशों की अमेरिका पर निर्भरता बढ़ाने की नीति पर आगे बढ़ रहे हैं।
अमेरिकी मंशा के आगे यूरोप के समर्पण करने की प्रमुख वजह यूरोपीय शासक वर्ग के अपने हित रहे हैं। इसे समझने के लिए सीडीयू-सीएसयू गठबंधन के नेता और जर्मनी के संभावित चांसलर फ्रेडरिक मेर्ज पर ध्यान दिया जा सकता है। राजनीतिक टीकाकार थॉमस फजी ने मेर्ज के बारे में लिखा हैः ‘… डॉनल्ड ट्रंप की तरह ही करोड़पति मेर्ज कॉरपोरेट किंग हैं, जिन्होंने कंजरवेटिव चोला पहन रखा है। यह नहीं भूलना चाहिए कि लंबे समय से वे दुनिया के सबसे शक्तिशाली कॉरपोरेट और वित्तीय अभिजात्य के प्रतिनिधि हैं। सबसे बड़ी बात वे 2016 से 2020 तक जर्मनी में ब्लैकरॉक कंपनी का प्रमुख नुमाइंदा रह चुके हैं। उनके निर्वाचित होने पर जर्मनी पहला ऐसा देश बनेगा, जिस पर ब्लैकरॉक कंपनी के पूर्व अधिकारी का शासन होगा। वैसे अभिजात्य संस्थाओं के साथ उनके रिश्ते इससे भी आगे जाते हैं। ब्लैकरॉक ज्वाइन करने के पहले वे राजनीति, कारोबार और वित्त के बीच भ्रमण करने वाली शख्सियतों की एक मिसाल थे।’ (https://unherd.com/2025/02/will-merz-sell-germany-to-blackrock/)
(ब्लैकरॉक दुनिया की सबसे धनी वित्तीय कंपनियों में एक है, जो फंड मैनेजमेंट से लेकर अन्य कई तरह के वित्तीय कारोबार करती है- https://www.therichest.com/rich-powerful/the-10-trillion-giant-heres-how-blackrock-became-the-biggest-company-in-the-world/)
मेर्ज की इसी पृष्ठभूमि के कारण ट्रंप के यूरोप विरोधी रुख पर उनकी कड़ी प्रतिक्रियाओं को गंभीरता से नहीं लिया गया है। मेर्ज ‘अमेरिका से जर्मनी को स्वतंत्र’ करने की घोषणा करते रहे हैं। उन्होंने कहा है कि उनके शासनकाल में जर्मनी अपनी सुरक्षा व्यवस्था को नया रूप देगा और अमेरिका पर दशकों पुरानी अपनी निर्भरता को खत्म करेगा। संभवतः मेर्ज ने यह रुख ट्रंप- इलॉन मस्क के खुलेआम एएफडी को अपना समर्थन देने से बनी परिस्थितियों की वजह से लिया। मगर, अपने वादे पर वे अमल कर पाएंगे, इसकी संभावना कम है।
इसलिए इस बात की संभावना भी कम है कि ताजा चुनाव नतीजों के बाद जर्मनी की सूरत सुधरेगी। मुद्दा वही है कि अगली सरकार जर्मनी में जारी महंगाई, बढ़ी बेरोजगारी, ऊर्जा संकट और उद्योगों के बंद होने का क्या इलाज पेश करेगी? गिरते आम जीवन स्तर और गैर-बराबरी का उसके पास क्या समाधान है? सीडीयू-सीएसयू के कार्यक्रम में ऐसे किसी इलाज का संकेत नहीं है। तो कुल मिलाकर स्थितियां यथावत बनी रहेंगी। ऐसा संभवतः उस “वास्तविक विकल्प” के उभरने तक जारी रहेगा, जो आम जन के हित को केंद्र में रखते हुए ऐसा परिवर्तनकारी एजेंडा पेश करे, जो एएफडी के भ्रामक विकल्प के मोह से लोगों को मुक्त कर पाए।