एक बर्गर जो सामान्य रूप से 20 मिनट में तैयार होता है, उसे 10 मिनट में बनाने के लिए पहले से तैयार पैटीज़ या कम गुणवत्ता वाली सामग्री का सहारा लिया जाता है। इससे न केवल स्वाद प्रभावित होता है, बल्कि पोषण मूल्य भी कम हो जाता है। कई बार, जल्दबाज़ी में तैयार भोजन में स्वच्छता के मानकों की भी अनदेखी हो जाती है, जिससे खाद्य जनित बीमारियों का ख़तरा बढ़ जाता है।
आज की तेज़-रफ़्तार दुनिया में, दस मिनट फ़ूड डिलीवरी सेवाएँ एक क्रांति की तरह उभरी हैं। लोग अपने व्यस्त जीवन में समय बचाने के लिए इन सेवाओं पर निर्भर हो रहे हैं। स्विगी, ज़ोमैटो, और अन्य स्टार्टअप्स ने ‘हाइपरलोकल डिलीवरी’ के नाम पर भोजन को रिकॉर्ड समय में ग्राहकों तक पहुँचाने का वादा किया है। लेकिन क्या यह सुविधा वाकई इतनी लाभकारी है, जितनी दिखाई देती है? दस मिनट फ़ूड डिलीवरी कितनी सार्थक है? विज्ञापन की चकाचौंध भारी दुनिया में इस सेवा के ऐसे कौन से बिंदु हैं जिन्हें अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है।
जब भी कभी किसी रेस्टोरेंट पर दस मिनट की डिलीवरी का ऑर्डर आता है तो उन पर इतना अधिक दबाव होता है कि वे अक्सर खाने की गुणवत्ता पर ध्यान देने के बजाय जल्दबाज़ी में ऑर्डर तैयार करते हैं। ताज़ा सामग्री का उपयोग, स्वच्छता, और स्वाद को भी नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
उदाहरण के लिए, एक बर्गर जो सामान्य रूप से 20 मिनट में तैयार होता है, उसे 10 मिनट में बनाने के लिए पहले से तैयार पैटीज़ या कम गुणवत्ता वाली सामग्री का सहारा लिया जाता है। इससे न केवल स्वाद प्रभावित होता है, बल्कि पोषण मूल्य भी कम हो जाता है। कई बार, जल्दबाज़ी में तैयार भोजन में स्वच्छता के मानकों की भी अनदेखी हो जाती है, जिससे खाद्य जनित बीमारियों का ख़तरा बढ़ जाता है।
दस मिनट डिलीवरी का सबसे बड़ा नुक़सान डिलीवरी कर्मचारियों के कंधों पर भी पड़ता है। इन कर्मचारियों को असंभव समय सीमा के भीतर ऑर्डर पहुँचाने के लिए दबाव झेलना पड़ता है। सड़कों पर तेज़ रफ़्तार से गाड़ी चलाने के कारण दुर्घटनाओं का जोखिम बढ़ जाता है। एक अध्ययन के अनुसार पिछले पाँच वर्षों में भारत में डिलीवरी कर्मचारियों की दुर्घटनाएँ 30% तक बढ़ी हैं और इसका एक बड़ा कारण ‘हाइपर-फास्ट डिलीवरी’ मॉडल है। इसके अलावा, ये कर्मचारी अक्सर कम वेतन, बिना किसी स्वास्थ्य/दुर्घटना बीमा के और अनिश्चित नौकरी की स्थिति में काम करते हैं। उनकी मानसिक और शारीरिक सेहत पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है।
तेज़ डिलीवरी का पर्यावरण पर भी गंभीर असर पड़ता है। डिलीवरी वाहनों की संख्या में वृद्धि से कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है। इसके अलावा, दस मिनट डिलीवरी के लिए छोटे-छोटे ऑर्डर अलग-अलग वाहनों से पहुँचाए जाते हैं, प्लास्टिक और डिस्पोज़ेबल कंटेनर भी पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाते हैं। एक अनुमान के अनुसार, भारत में फ़ूड प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करता है, जिसका बड़ा हिस्सा रिसाइकिल नहीं हो पाता। दस मिनट डिलीवरी मॉडल इस समस्या को और बढ़ाता है, क्योंकि जल्दबाज़ी में पर्यावरण-अनुकूल पैकेजिंग पर ध्यान नहीं दिया जाता।
प्लेटफॉर्म्स द्वारा संचालित होता है, जो रेस्तराँओं से भारी कमीशन वसूलते हैं। छोटे और स्थानीय रेस्तराँ, जो पहले से ही कम मार्जिन पर काम करते हैं, इस दबाव को झेल नहीं पाते। कई बार उन्हें अपनी कीमतें बढ़ानी पड़ती हैं या गुणवत्ता से समझौता करना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप, कई छोटे रेस्तराँ बंद हो रहे हैं, और बाज़ार पर कुछ बड़े खिलाड़ियों का दबदबा बढ़ रहा है। यह न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है, बल्कि ग्राहकों के लिए विकल्पों की विविधता को भी कम करता है।
दस मिनट डिलीवरी ने लोगों की खाने की आदतों को भी बदल दिया है। अब लोग घर पर खाना बनाने या बाहर खाने की बजाय तुरंत डिलीवरी का विकल्प चुनते हैं। इससे न केवल पारंपरिक खाना पकाने की कला ख़तरे में पड़ रही है, बल्कि लोग अस्वास्थ्यकर खाने की ओर भी बढ़ रहे हैं। फास्ट फूड और प्रोसेस्ड भोजन, जो जल्दी तैयार हो जाता है, इस मॉडल में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है। इसका दीर्घकालिक प्रभाव लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है, जिसमें मोटापा, मधुमेह, और हृदय रोग जैसी समस्याएँ शामिल हैं।
दस मिनट डिलीवरी पूरी तरह से तकनीक पर निर्भर है। ग्राहकों को बार-बार ऐप का उपयोग करना पड़ता है, जिससे प्लेटफॉर्म्स के पास जमा हो जाती है। डेटा उल्लंघन की घटनाएँ पहले भी सामने आ चुकी हैं, और यह जोखिम बना रहता है। इसके अलावा, लोग ऐप की सुविधा के आदी हो रहे हैं, जिससे उनकी स्वतंत्रता और निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित हो रही है।
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भारत में खाना केवल पेट भरने का साधन नहीं है; यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक अनुभव भी है। परिवारों का एक साथ खाना बनाना और खाना सामुदायिकता को बढ़ावा देता है। दस मिनट डिलीवरी इस अनुभव को कमज़ोर कर रही है। लोग अब रेस्तराँ में जाकर खाने की बजाय घर पर ऑर्डर करना पसंद करते हैं, जिससे सामाजिक मेलजोल कम हो रहा है। इसके अलावा, स्थानीय व्यंजनों की जगह फास्ट फूड चेन का प्रभुत्व बढ़ रहा है, जो सांस्कृतिक विविधता के लिए हानिकारक है।
हालांकि दस मिनट डिलीवरी रोज़गार सृजन करती है, लेकिन यह आर्थिक असमानता को भी बढ़ावा देती है। डिलीवरी प्लेटफॉर्म्स और निवेशक भारी मुनाफा कमाते हैं। यह मॉडल कुछ लोगों को अत्यधिक सुविधा प्रदान करता है, लेकिन समाज के एक बड़े वर्ग को इसका लाभ नहीं मिलता।
दस मिनट फ़ूड डिलीवरी की सुविधा ने हमारे जीवन को आसान बनाया है, लेकिन इसके नुक़सान भी कम नहीं हैं। खाद्य गुणवत्ता से लेकर पर्यावरण, डिलीवरी कर्मचारियों की सुरक्षा से लेकर स्थानीय अर्थव्यवस्था तक, यह मॉडल कई क्षेत्रों में नकारात्मक प्रभाव भी डाल रहा है। हमें यह सोचना होगा कि क्या हमें वाकई हर चीज़ इतनी जल्दी चाहिए, या हम थोड़ा धीमा चलकर एक स्वस्थ और संतुलित जीवनशैली चुन सकते हैं। सरकार, कंपनियों, और ग्राहकों को मिलकर इस मॉडल को और ज़िम्मेदाराना बनाने की दिशा में काम करना होगा। स्थायी और नैतिक डिलीवरी प्रथाओं को अपनाकर हम सुविधा और ज़िम्मेदारी के बीच संतुलन बना सकते हैं।
Pic Credit: ANI