सभी वरिष्ठ नागरिकों शायद को ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरणपोषण तथा कल्याण अधिनियम, 2007’ के कानून की जानकारी रखनी चाहिए ताकि अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार और अपमान के ख़िलाफ़ न्याय लेने के लिए कोर्ट भी जा सकते हैं। माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरणपोषण तथा कल्याण अधिनियम, 2007’ के तहत ऐसे तमाम प्रावधान हैं जहां बुजुर्गों की सुरक्षा व देखभाल का ख़्याल रखा गया है।
आधी दुनिया पर विजय पाने वाला सिकंदर-ए-आज़म जब अपने देश वापिस लौट रहा था तो उसका स्वास्थ्य इतना बिगड़ा की वह मरणासन्न स्थिति में पहुँच गया। अपनी मृत्यु से पहले सिकंदर ने अपने सेनापतियों और सलाहकारों को बुलाया और कहा की मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरी तीन इच्छाएँ पूरी की जाएँ। उन तीन इच्छाओं में से एक इच्छा थी। “मेरी अर्थी में मेरे दोनों हाथ बाहर की ओर रखे जाएं – इससे लोग समझ सकें की जब मैं दुनिया से गया तो मेरे दोनों हाथ खाली थे। इंसान आता भी खाली हाथ है और जाता भी खाली हाथ है।” परंतु इस बात को बिना समझे, हम हर पल अधिक से अधिक संपत्ति और धन अर्जित करने की दौड़ में लग जाते हैं।
आए दिन हमें यह देखने को मिलता है कि किसी बुजुर्ग को, पैसे और संपत्ति के लालच में उसी की संतान ने घर से बेघर कर दिया। ऐसा अक्सर उन परिस्थितियों में होता है जब बच्चों को सही संस्कार नहीं दिये जाते। ऐसा अक्सर तब भी होता है जब घर के बड़े-बुजुर्ग अपने मोह और स्नेह के चलते, अपने जीते-जी ही अपनी चल-अचल संपत्ति के सभी उत्तराधिकार अपने बच्चों को दे देते हैं। जो संतान संस्कारी होती है वे बिना किसी लोभ या स्वार्थ के, अंतिम समय तक अपने माता-पिता की सेवा करते हैं।
परंतु ऐसी भी संतान होतीं हैं जिन्हें जैसे ही इस बात का पता चलता है कि माता-पिता ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बना दिया है, वैसे ही उनका अपने माता-पिता के प्रति व्यवहार बदलने लगता है। परंतु सभी वरिष्ठ नागरिकों शायद इस बात की जानकारी नहीं है कि ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरणपोषण तथा कल्याण अधिनियम, 2007’ के तहत वे अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार और अपमान के ख़िलाफ़ न्याय लेने के लिए कोर्ट भी जा सकते हैं।
माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरणपोषण तथा कल्याण अधिनियम, 2007, भारत सरकार का एक अधिनियम है जो वरिष्ठ नागरिकों और माता-पिता के भरण-पोषण और देखभाल के लिए कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है। इस अधिनियम के तहत, बच्चों और उत्तराधिकारियों द्वारा वरिष्ठ नागरिकों को भरण-पोषण देना कानूनी दायित्व है। इस अधिनियम के तहत, राज्य सरकारों को हर ज़िले में वृद्धाश्रम स्थापित करने के प्रावधान भी हैं।
अगर कोई वरिष्ठ नागरिक अपनी आय या संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तो वह अपने बच्चों या रिश्तेदारों से भरण-पोषण के लिए आवेदन कर सकता है। अगर कोई व्यक्ति, किसी वरिष्ठ नागरिक की देखभाल या संरक्षण प्राप्त करने के बाद उसे उपेक्षित किसी जगह छोड़ देता है, तो उसे तीन महीने तक की जेल हो सकती है या पांच हज़ार रुपये तक का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
अगर किसी वरिष्ठ नागरिक के बच्चे नहीं हैं, तो वह भी मेंटेनेंस के लिए दावा कर सकता है। अगर किसी वरिष्ठ नागरिक की संपत्ति का इस्तेमाल रिश्तेदार कर रहे हैं, तो सम्पत्ति का इस्तेमाल करने वाले या उसके वारिस पर बुज़ुर्ग की देखभाल के लिए दावा किया जा सकता है। इतना सब कुछ होते हुए भी हमें अक्सर यही सुनने को मिलता है कि बुजुर्गों को उन्हीं के खून द्वारा अपमानित व उपेक्षित किया जाता है।
ऐसे में कई बुजुर्ग जिन्हें इस अधिनियम की जानकारी नहीं है वे तो अपने अपमान के विरुद्ध ख़ामोश रहते ही हैं। साथ ही ऐसे भी बुजुर्ग हैं जो समाज में अपनी व अपने बच्चों की मर्यादा और इज़्ज़त की ख़ातिर क़ानूनी सलाह या कार्यवाही नहीं करते।
बीते दिनों दिल्ली से सटे नोएडा की एक खबर आई जहां 85 वर्ष के एक वरिष्ठ पत्रकार को अपने ही घर से बेघर होने की स्थित का सामना करना पड़ा। उन्होंने एक-एक पाई जोड़ कर सन् 2000 में एक फ्लैट ख़रीदा। 2015 में जब उनकी इकलौती बेटी शादी विफल हुई तो वो अपने पुत्र के साथ अपने पिता के घर में रहने लगी। कई वर्षों तक सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा। 2022 में अपनी पुत्री के प्रति स्नेह के चलते उन्होंने अपने फ्लैट को एक ‘गिफ्ट डीड’ के ज़रिये अपनी बेटी के नाम कर दिया।
इस ‘गिफ्ट डीड’ होने के कुछ ही महीनों के बाद उनकी बेटी का अपने पिता के प्रति रवैया बदलने लगा। पहले बुरा बर्ताव, फिर मार-पीट और उसके बाद उन्हें कई बार घर से भी निकाला गया। बाद में किसी न किसी तरह उन्हें घर में वापिस लिया गया। परंतु हद तो तब हुई जब बीते अगस्त में उनकी बेटी ने इस फ्लैट को बेच दिया और अब उन्हें इस उम्र में बेघर होने पर मजबूर कर दिया। नोएडा हो या देश का कोई अन्य शहर, ऐसी खबरें आपको लगातार मिलती रहती हैं और आपको सोचने पर मजबूर करती हैं कि हमारा समाज किस दिशा में जा रहा हैं?
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता, अजय गर्ग के अनुसार “ज़्यादातर लोगों को ‘गिफ्ट डीड’ और ‘वसीयत’ के बीच के मूल अंतर की जानकारी ही नहीं होती। कोई भी व्यक्ति अपने जीवन काल में, ‘गिफ्ट डीड’ के माध्यम से अपनी संपत्ति किसी के भी नाम कर सकता है। प्रायः ‘गिफ्ट डीड’ इस उम्मीद से की जाती है कि जिस किसी के भी हक़ में ‘गिफ्ट डीड’ लिखी गई हो वह व्यक्ति दान-दाता की अच्छी देखभाल करेगा। वहीं किसी भी ‘वसीयत’ पर मृत्यु के पश्चात ही अमल किया जा सकता है।
दोनों ही स्थितियों में यदि बुजुर्गों को यह लगता है कि उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं हो रहा तो वे इसमें बदलाव या इसे रद्द भी कर सकते हैं।” ग़ौरतलब है कि ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरणपोषण तथा कल्याण अधिनियम, 2007’ के तहत ऐसे तमाम प्रावधान हैं जहां बुजुर्गों की सुरक्षा व देखभाल का ख़्याल रखा गया है। इस अधिनियम का सही इस्तेमाल उचित क़ानूनी सलाह पर लिया जाए तो न सिर्फ़ बुजुर्गों को अपमानित करने वाली घटनाओं में कमी आएगी बल्कि अपनों का अपनों के प्रति स्नेह बना रहेगा।