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अमेरिका के आगे झुकने की इतनी क्या मजबूरी!

वर्तमान विश्व व्यवस्था को तार-तार करते ट्रंप प्रशासन के आगे भारत सरकार के इस व्यवहार को समर्पण के अलावा और क्या कहा जा सकता है? जबकि संकेत यह है कि ट्रंप चीन और रूस जैसे ताकतवर देशों की बात तो दूर, उन देशों के सामने भी नरम पड़ जाते हैं, जो अपनी रीढ़ पर सीधे खड़े नजर आए हैं। ….एक अफ्रीकी सामाजिक कार्यकर्ता की ये टिप्पणी याद हो आती है कि उपनिवेशवाद/ साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में अग्रणी रहा कोई समाज कितनी जल्दी साम्राज्यवाद का स्वयंसेवक बन सकता है, भारत उसका जीता-जागता उदाहरण है।

अपनी ब्रिटेन यात्रा के दौरान लंदन स्थित थिंक टैंक चैटहम हाउस के संवाद में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने जो कहा, उसके बाद डॉनल्ड ट्रंप काल में तेजी से बदल रहे वैश्विक समीकरणों के बीच भारत कहां खड़ा है, इस बारे में कोई भ्रम नहीं रह गया है। इस लिहाज से जयशंकर की ये टिप्पणियां खास हैः

–              अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप अपने व्यवहार में बहुध्रुवीयता (multi-polarity) का पालन करते हुए असल में असल में दुनिया को बहुध्रुवीय बनाने की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। जयशंकर ने कहा- “हमारी नज़र में अमेरिका में एक ऐसे राष्ट्रपति और प्रशासन का आगमन हुआ है, जो बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ रहे हैं। यह ऐसी दिशा है, जो भारत के माफिक है।”

–              “मेरी राय में, राष्ट्रपति ट्रंप के नजरिए से एक बड़ा साझा मंच क्वैड (क्वाड्रैंगुलर सिक्युरिटी डॉयलॉग है), जिसका हर सदस्य साझा जिम्मेदारी निभाने में अपने हिस्से का योगदान कर रहा है।” (क्वैड में अमेरिका और भारत के अलावा ऑस्ट्रेलिया और जापान शामिल हैं।)

–              ट्रंप ने धमकी दे रखी है कि ब्रिक्स समूह डॉलर के वर्चस्व को कमजोर करने की दिशा में बढ़ा, तो अमेरिका उसके हर सदस्य पर 100 फीसदी टैरिफ (आयात शुल्क) लगाएगा। इस बारे में जयशंकर से पूछा गया, तो उनका जवाब था- ‘डॉलर की अनदेखी करने में हमारी कोई रुचि नहीं है।’ उन्होंने कहा कि भारतीय क्षेत्र में समस्या डॉलर की कम उपलब्धता की है। जयशंकर कहा- अमेरिकी डॉलर दुनिया में आर्थिक स्थिरता का स्रोत है और फिलहाल इस स्थिरता की बहुत जरूरत है।

–              ब्रिक्स की डॉलर के उपयोग से हटने की योजना के बारे में पूछने पर जयशंकर का कहना था- ब्रिक्स देशों के बीच डॉलर के बारे में अलग-अलग विचार हैं। ‘यह धारणा तथ्यों पर आधारित नहीं है कि ब्रिक्स में डॉलर के खिलाफ कोई एकमत राय है।’

दरअसल, ट्रंप के ह्वाइट हाउस में आने के बाद से नरेंद्र मोदी सरकार का जो रुख दिखा है, जयशंकर ने उसे ही स्पष्टता से व्यक्त किया। इस रुख को क्या नाम दिया जाए, इस पर बाद में आएंगे। पहले यह देखते हैं कि हुआ क्या है।

इसे टालने की कोशिश में वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल वॉशिंगटन गए। कहा गया है कि उनका मकसद अमेरिका के साथ एक व्यापार समझौते पर सहमति बनाना है, ताकि भारत reciprocal टैरिफ के दायरे में आने से बच सके। ऐसी व्यापार वार्ताओं में अक्सर सहमति का सिद्धांत लेन-देन (give and take) होता है। मगर गोयल की वहां हुई वार्ताओं से संबंधित जो खबरें भारतीय मीडिया में आई हैं, उससे अमेरिका से भारत के कुछ हासिल करने का कोई संकेत नहीं मिला है। ऐसा लगता है कि ये सारी वार्ता में भारत के नजरिए सिर्फ give (देना) ही give है। गौर कीजिएः

उपरोक्त सूचनाओं और जयशंकर के बयानों पर गौर करते हुए आपातकाल (1975-77) के बारे में पत्रकारों के व्यवहार के बारे में भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी की टिप्पणी बरबस याद आ जाती है। आडवाणी ने कहा था कि तब पत्रकारों से झुकने के लिए कहा गया था, लेकिन वे रेंगने लगे।

क्या वर्तमान विश्व व्यवस्था को तार-तार करते ट्रंप प्रशासन के आगे भारत सरकार के इस व्यवहार को समर्पण के अलावा और क्या कहा जा सकता है? जबकि संकेत यह है कि ट्रंप चीन और रूस जैसे ताकतवर देशों की बात तो दूर, उन देशों के सामने भी नरम पड़ जाते हैं, जो अपनी रीढ़ पर सीधे खड़े नजर आए हैं।

अवैध आव्रजकों को वापस उनके देश भेजने के क्रम में कोलंबिया के राष्ट्रपति गुस्तावो पेट्रो से समझौता करने, मेक्सिको पर दो बार टैरिफ लगा कर फिर उसे स्थगित करने, कनाडा से ऑटो पार्ट्स के आयात पर टैरिफ टालने आदि के जरिए उन्होंने यही संकेत दिया है। फिलस्तीन के गजा पर कब्जे के उनके इरादे के खिलाफ गोलबंद होते उस क्षेत्र के देशों को देखते हुए उनका अगर-मगर पर उतर आना और यहां तक कि हमास से (जिसे अमेरिका आतंकवादी संगठन मानता है) सीधी वार्ता शुरू कर देना भी उनके ऐसे ही रुख को जाहिर करता है।

चीन और कनाडा ने ट्रंप के टैरिफ को विश्व व्यापार संगठन में चुनौती देने की घोषणा कर दी है। और इधर भारत है, जो हर मुद्दे पर प्रतिरोध जताने से बच रहा है। भारत के नागरिक अवैध आव्रजकों को हथकड़ी और बेड़ी बना कर सैनिक विमान से लौटाने पर चुप्पी के बाद व्यापार और टैरिफ मामलों में छूट-दर-छूट देते जाना कमजोरी दिखाना नहीं, तो और किस बात का संकेत हो सकता है? हकीकत तो यह है कि अवैध आव्रजक मामले में भारत सरकार के अधिकारियों ने ट्रंप प्रशासन के व्यवहार को उचित ठहराने की कोशिश की। उधर देश के अंदर कुछ हलकों से ‘सचमुच भारत में ऊंची शुल्क दर है’ जैसी बातें कह कर ट्रंप के टैरिफ डंडे को सही बताने की कोशिश हो रही है।

अगर ऐसा अज्ञान की वजह से किया जा रहा हो, तो यह जान लेना लाभदायक रहेगा-

– 2015 में इसके लिए नया फॉर्मूला अपनाया गया। इसके तहत सदस्य देशों को प्रति व्यक्ति औसत राष्ट्रीय आय के आधार पर चार श्रेणियों में बांटा गया। उन्हें अलग-अलग दर से टैरिफ लगाने का अधिकार दिया गया। ये श्रेणियां हैं-

– उच्च आय अर्थव्यवस्था (जहां प्रति व्यक्ति सालना राष्ट्रीय आय 12,476 डॉलर से अधिक हो)

– उच्च मध्य आय वर्ग की अर्थव्यवस्थाएं (जहां प्रति व्यक्ति सालाना आय 4,038 से 12,475 डॉलर तक हो)

– निम्न मध्य आय अर्थव्यवस्था (जहां प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय 1,026 डॉलर से 4,037 डॉलर के बीच हो)

– निम्न आय अर्थव्यवस्था (जहां प्रति व्यक्ति सालाना आय 1,025 डॉलर या उससे कम हो)

–  जो देश जितना गरीब है, उसे उतने अधिक दर से टैरिफ लगाने का अधिकार है

– इसके अलावा तीन और कसौटियां हैं, जिनसे टैरिफ दर तय होती है

– Most-Favored Nation (MFN) टैरिफः इसका लाभ डब्लूटीओ के सदस्य सभी देशों को दूसरे सदस्य देशों के साथ व्यापार में मिलता है

– प्राथमिकता आधारित (Preferential) टैरिफः इसके तहत सदस्य देश आपस में समझौता कर संबंधित देश के लिए प्राथमिकता आधारित शुल्क लगा सकते हैं।

– विशेष सुरक्षाएः यह प्रावधान वे देश लागू कर सकते हैं, जिन्हें ये महसूस हो कि किसी अन्य देश विशेष से आयात के कारण उनके घरेलू उद्योग को क्षति का अंदेशा है।

तो भारत इसलिए अमेरिका पर उसकी तुलना में अधिक दर से आयात शुल्क लगाता रहा है, क्योंकि भारत निम्न आय वर्ग अर्थव्यवस्था की श्रेणी में आता है (भारत की प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय ढाई हजार डॉलर से कुछ ज्यादा है), जबकि अमेरिका उच्च आय वर्ग अर्थव्यवस्था है। अमेरिका दरअसल, दुनिया का सबसे धनी देश है। इसलिए उसकी एक विकासशील देश के समान टैरिफ लगाने की जिद को दादागिरी, बल्कि एक तरह के अत्याचार के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता।

पहले GATT और फिर डब्लूटीओ का गठन उस समय हुआ, जब उपनिवेशवाद/ साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों के कारण न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था बनाने का लक्ष्य एक जीवंत सिद्धांत के रूप में स्थापित हुआ था। इसके दबाव में धनी देश विकासशील या अविकसित देशों को रियायत देने पर मजबूर हुए थे। मगर, आज की बदली परिस्थितियों में खुद पिछड़े देशों के शासक वर्ग भी यथास्थिति में अपना फायदा देखने लगे हैं। नतीजा यह है कि धनी देशों ने खुलेआम दूसरे विश्व युद्ध के बाद स्थापित हुए नियमों एवं व्यवस्थाओं को भंग करना शुरू कर दिया है। डॉनल्ड ट्रंप इसके बेपर्द प्रतीक के रूप में आज दुनिया के सामने हैं।

अपने दूसरे कार्यकाल के पहले डेढ़ महीनों के अंदर जिन संधियों या समझौतों से उन्होंने अपने देश को अलग किया है, या अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय वचनबद्धताओं को उन्होंने तोड़ा है, उनमें शामिल हैः

इन कदमों से ट्रंप ने साफ कर दिया है कि वे किसी अंतरराष्ट्रीय नियम या व्यवस्था को नहीं मानते। वे जिसकी लाठी, उसकी भैंस के सिद्धांत में यकीन करते हैं।

मगर भारत में इस सारे घटनाक्रम को इस संदर्भ में रखने और इसको लेकर आम जन के बीच जागरूकता पैदा करने के किसी प्रयास के संकेत नहीं हैं। सत्ता पक्ष का क्या नजरिया है, यह तो विदेश मंत्री के बयानों और सरकार के कदमों से जग-जाहिर हो चुका है। मगर विपक्ष की सोच भी कम समर्पणकारी नहीं है। उसके पास सिर्फ एक ही नैरेटिव है कि नरेंद्र मोदी ट्रंप के सामने झुक गए हैं। वैसे जहां तक ट्रंप प्रशासन से बनी सहमति का सवाल है, तो विदेश नीति संबंधी कांग्रेस के विशेषज्ञ शशि थरूर उसकी प्रशंसा कर चुके हैं। वामपंथी दलों में भी इसको लेकर एक रहस्यमय चुप्पी नजर आई है। इस रूप में यह कहना सटीक ही होगा कि अमेरिकी श्रेष्ठता या प्रभाव के आगे समर्पण पर देश में लगभग राजनीतिक आम सहमति है।

इस प्रकरण में सहज ही एक अफ्रीकी सामाजिक कार्यकर्ता की ये टिप्पणी याद हो आती है कि उपनिवेशवाद/ साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में अग्रणी रहा कोई समाज कितनी जल्दी साम्राज्यवाद का स्वयंसेवक बन सकता है, भारत उसका जीता-जागता उदाहरण है।

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