वार्नर ब्रदर्स ने सिनेलिटिक्स नामक कंपनी से अनुबंध किया है जो आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस के जरिए फिल्म से संबंधित हर तरह के फैसले लेने में मदद करेगी। ऐसी कंपनियां फिल्म के विषय की बाबत नए आइडिया देने के अलावा कहानी, स्क्रीनप्ले और संवाद लिखने में भी आर्टीफ़ीशियल इंटेलीजेंस का घालमेल कर रही हैं। … पूरी दुनिया में फिल्मों और वेबसीरीज़ के लिए बेहतर और नई कहानियों की जो मारामारी चल रही है उसमें एआई खासा कारगर हो रहा है जो कि लेखकों के लिए एक संकट की तरह है। हॉलीवुड में किसी स्क्रीनप्ले पर अगर चार लोग काम कर रहे हैं तो समझिये कि अब एक या दो की ही जरूरत रह जाएगी।
परदे से उलझती ज़िंदगी
किसी सीट पर चुनाव के समय उस क्षेत्र के पुराने चुनावी आंकड़े, मुद्दे जो वहां प्रभाव डालते रहे हैं, आज की परिस्थितियां, वोटरों का प्रोफ़ाइल, आपकी पृष्ठभूमि और आपने जो वादे किए हैं, इस सब का विश्लेषण कर आर्टीफ़ीशियल इंटेलीजेंस यह बता सकता है कि आपकी जीत की कितनी संभावना है। यह किसी इम्तहान में बैठने से पहले खुद से संबंधित तमाम सूचनाओं के आधार पर आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस से यह पता लगाने की कोशिश जैसा है कि आप पास होंगे या नहीं। उसका बताया गलत साबित हुआ तब तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर वह सच निकलने लगा तो न किसी इम्तहान का कोई मतलब रह जाएगा और न किसी चुनाव का।
असल में परिणाम की अनिश्चितता ही किसी इम्तहान को इम्तहान और किसी चुनाव को चुनाव बनाती है। नाकामी का ख़ौफ़ भी वही पैदा करती है और अपनी सफलता पर गर्वित होने का कारण भी वही देती है। पूरा जीवन अनिश्चितताओं से भरा हुआ है। धाराप्रवाह अनिश्चितताएं। उन्हें हटा दीजिए तो जीवन में न जिज्ञासा बचेगी, न चुनौती और न कोई प्रेरणा। उसे तो जीवन भी कहना मुश्किल हो जाएगा।
मगर टेक्नोलॉजी के बवंडर को थामा नहीं जा सकता। हॉलीवुड की बड़ी फिल्म निर्माण कंपनियां बॉक्स ऑफिस के मौजूदा रुझानों और पुराने डेटाबेस के आधार पर आर्टीफ़ीशियल इंटेलीजेंस से यह पता लगाने लगी हैं कि अब जो फिल्म वे बना रही हैं उसके चलने की कितनी संभावना है। एआई को अगर फिल्म का विषय, उसके कलाकारों और निर्देशक की जानकारी, वह कब रिलीज़ हो रही है और उसकी मार्केटिंग कैसे की जा रही है आदि भी बताया जाए तो वह और सटीक संभावनाएं बता सकता है। कई फिल्मकार तो एआई से पूछ कर ही फिल्म के वितरण और प्रचार की रणनीति बना रहे हैं। वार्नर ब्रदर्स ने सिनेलिटिक्स नामक कंपनी से अनुबंध किया है जो आर्टीफ़ीशियल इंटेलीजेंस के जरिए फिल्म से संबंधित हर तरह के फैसले लेने में मदद करेगी।
ऐसी कंपनियां फिल्म के विषय की बाबत नए आइडिया देने के अलावा कहानी, स्क्रीनप्ले और संवाद लिखने में भी आर्टीफ़ीशियल इंटेलीजेंस का घालमेल कर रही हैं। फिल्म देखते हुए कोई यह अंदाज़ा नहीं लगा सकता कि जिस संवाद या एक्शन पर थिएटर में तालियां बज रही हैं वह किसी एआई टूल ने सुझाया था। एआई फिल्म के संपादन, वीएफएक्स और साउंड संबंधी फैसलों में भी हाथ बंटा रहा है। एक माने में, फिल्मों को लेकर आर्टीफ़ीशियल इंटेलीजेंस के टूल वह काम कर रहे हैं जिनके लिए उस विषय के विशेषज्ञों की जरूरत पड़ती है। गनीमत बस यह है कि अभी तक इन सब कामों में मानवीय दखल बरकरार है। लेकिन कब तक? क्या यह दखल समाप्त भी हो सकता है? पश्चिमी मीडिया में चल रही खबरों की मानें तो कुछ ही महीनों में एआई का हल्ला और तेज होने वाला है जिसका असर सिनेमा की दुनिया पर भी पड़ेगा।
क्या यह माना जाए कि एक समय आएगा जब एआई सब कुछ खुद ही करने लगेगा? पता नहीं वह स्थिति आने में कितना समय लगेगा, मगर फिलहाल एआई फिल्म के निर्माण के लिए ज़रूरी लोगों की संख्या घटा सकता है। पूरी दुनिया में फिल्मों और वेबसीरीज़ के लिए बेहतर और नई कहानियों की जो मारामारी चल रही है उसमें एआई खासा कारगर हो रहा है जो कि लेखकों के लिए एक संकट की तरह है। हॉलीवुड में किसी स्क्रीनप्ले पर अगर चार लोग काम कर रहे हैं तो समझिये कि अब एक या दो की ही जरूरत रह जाएगी। जिस दिन एआई टूल स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले में भावनाएं भी पिरोना सीख जाएंगे तो फिर इन एक-दो लोगों की जरूरत भी नहीं रहेगी। तब पूरी कहानी ये टूल खुद लिख लेंगे। उसके बाद फिल्म निर्माण के दूसरे विभागों का नंबर आएगा। क्या सचमुच ऐसा होगा? जो वैज्ञानिक दुनिया भर की सरकारों से आर्टीफ़ीशिय़ल इंटेलीजेंस को नियंत्रित करने की अपील कर रहे हैं, वे इसे असंभव नहीं मानते।
भारत में भी यह सब होने में कोई ज्यादा समय नहीं लगने वाला। हमारे फिल्म निर्माता जैसे वीएफ़एक्स और स्पेशल इफ़ेक्ट देने वाली कंपनियों से अनुबंध करते हैं, वैसे ही वे कहानी में मदद के लिए, फिल्म के प्रमोशन की रणनीति तैयार करने और फिल्म का भविष्य जानने के लिए एआई कंपनियों पर पैसा खर्च कर सकते हैं। हमारे यहां भी फिल्मों का बजट पांच सौ करोड़ को और कमाई हज़ार करोड़ को पार करने लगी है। इसलिए ऐसी कंपनियों का आगमन अब ज्यादा दूर नहीं है। हैरानी की बात तो यह है कि इतने बड़े बजट के बावजूद ‘आदिपुरुष’ के निर्माताओं ने यह मदद क्यों नहीं ली।
अगर ले लेते तो शायद उन्हें पहले ही पता लग जाता कि वे जितना बड़ा दांव लगाने चले हैं उतने ही घने जोखिम में फंसने वाले हैं। लेकिन ऐसी कंपनियों से मदद लेने से पहले उन हज़ारों लोगों को याद करना ज़रूरी होगा जो अपने फिल्म इतिहास के एक सौ दस सालों में तमाम दिक्कतों के बावजूद फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कूदे। अपने इस जुनून में उन्हें बहुत कुछ खोना पड़ा। कर्ज लेना पड़ा, घर-बार बेचना पड़ा। उनमें से कुछ ही लोग सफल हुए और बड़े फिल्मकार कहलाए। लेकिन आज भारतीय फिल्म उद्योग जिस मकाम पर है उसे वहां तक लाने का श्रेय उन लोगों को भी जाता है जिन्होंने अपना सब कुछ लुटा कर फिल्में बनाईं और फ़ेल हो गए।
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