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विपक्ष के दिग्गजों की परीक्षा

विपक्ष

भाजपा के गठबंधन एनडीए और विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की एक ही दिन हुई बैठक की तस्वीरों की तुलना में एक दिलचस्प राजनीतिक नैरेटिव दिखता है। दिल्ली में हुई एनडीए की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ खड़े होकर फोटो खिंचवाने वाले नेताओं में से 90 फीसदी नेता ऐसे थे, जिनको अपने क्षेत्र या अधिक से अधिक अपने राज्य से बाहर कोई नहीं जानता है। एनडीए की बैठक में ज्यादातर छोटी पार्टियां थीं। और ज्यादातर नेताओं की कोई राष्ट्रीय या राज्यस्तरीय पहचान भी नहीं है। तभी दिल्ली के अशोक होटल की तस्वीर ऐसी थी, जिसमें नरेंद्र मोदी की हैसियत सूर्य वाली थी और बाकी सारे छोटे-मोटे ग्रह थे, जो उनकी परिक्रमा कर रहे थे। हालांकि इसका भी अगले साल के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए बहुत फायदा है।

इसके उलट विपक्ष की बैठक में अधिकतर चेहरे ऐसे थे, जिनकी राष्ट्रीय पहचान है या अपने राज्य के सबसे बड़े नेताओं में आते हैं। वहां न कोई सूर्य था और न परिक्रमा करने वाले ग्रह थे। सबकी स्वतंत्र हैसियत थी और सब बराबरी में बैठे थे। उनकी अपनी ताकत है, जिसके दम पर वे राजनीति करते हैं लेकिन भाजपा के गठबंधन में शामिल ज्यादातर पार्टियों और नेताओं के पास अपनी ताकत नहीं है। वे नरेंद्र मोदी के लिए पूरक की तरह काम करेंगे। तभी सवाल है कि ये पूरक पार्टियां अगले चुनाव में भाजपा की कितनी मदद कर पाएंगी? दूसरी ओर यह सवाल है कि विपक्ष के तमाम दिग्गज मिल कर क्या नरेंद्र मोदी को रोक पाएंगे?

विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की बैठक में शामिल नेताओं के चेहरे पर एक नजर डालें तो दिखेगा कि लगभग सभी नेता लंबे राजनीतिक अनुभव वाले हैं। उन्होंने अपनी पार्टी को मजबूत किया और कई महत्वपूर्ण राजनीतिक लड़ाइयां जीती हैं। बैठक की अध्यक्षता मल्लिकार्जुन खड़गे कर रहे थे, जिनका राजनीतिक अनुभव पांच दशक से ज्यादा का है। वे कर्नाटक की राजनीति के सबसे बड़े चेहरों में हैं। एनसीपी नेता शरद पवार निर्विवाद रूप से महाराष्ट्र की राजनीति के सबसे बड़े नेता हैं।

इसी तरह एमके स्टालिन तमिलनाडु की राजनीति की सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता हैं। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों बैठक में मौजूद थे, जिनके ईर्द-गिर्द बिहार की राजनीति पिछले करीब साढ़े तीन दशक से घूम रही है। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी और सबसे लोकप्रिय नेता हैं तो हेमंत सोरेन भी झारखंड के सबसे बड़े नेताओं में शुमार होते हैं। अखिलेश यादव भी देश के सबसे बड़े राज्य के पांच साल तक मुख्यमंत्री रहे हैं और राज्य की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों की राजनीतिक हैसियत बहुत बड़ी नहीं रह गई है फिर भी सीताराम येचुरी और डी राजा दोनों की राष्ट्रीय पहचान है।

कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी पटना की बैठक में शामिल नहीं हुई थीं लेकिन वे बेंगलुरू की बैठक में शामिल हुईं। वे बैठक की अध्यक्षता नहीं कर रही थीं लेकिन उनके होने का असर पूरी बैठक पर दिख रहा था। उनके नाम से यह रिकॉर्ड है कि उन्होंने राष्ट्रीय चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी दोनों को हराया है। उनकी कमान में 2004 में कांग्रेस ने भाजपा को तब हराया था, जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और देश मान रहा था कि उनका कोई विकल्प नहीं है।

इसके बाद 2009 में जब लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर लड़े तब सोनिया गांधी की कमान में कांग्रेस ने उनको भी हराया। सो, सोनिया गांधी का अनुभव और यह उपलब्धि उनको विपक्षी गठबंधन का केंद्र बनवाने वाली है। तभी कांग्रेस के नेता चाहते हैं कि सोनिया गांधी को ‘इंडिया’ का संयोजक बनाया जाए। विपक्ष की दूसरी बैठक में आठ नई पार्टियों को न्योता दिया गया था, जो अपेक्षाकृत छोटी पार्टियां हैं। लेकिन इनका राज्य की बड़ी प्रादेशिक पार्टियों के साथ पहले से गठबंधन है।

सो, भले एनडीए की बैठक के बाद यह मैसेज बना हो कि 38 पार्टियों का गठबंधन ‘इंडिया’ से  लड़ेगा लेकिन हकीकत यह है कि लड़ाई नरेंद्र मोदी से ही है। एक तरफ नरेंद्र मोदी होंगे, जिनकी ताकत, लोकप्रियता, संसाधन और करिश्मे के दम पर एनडीए की सारी पार्टियां लड़ेंगी तो दूसरी ओर एक नया बना गठबंधन ‘इंडिया’ होगा, जिसकी एक विशाल छाते के नीचे सभी पार्टियां अपनी अपनी लडाई लड़ेंगी। विपक्षी गठबंधन में कोई एक नेता ऐसा नहीं होगा, जिसके नाम से समूचे गठबंधन को फायदा होगा। सब एक बड़ी लड़ाई लड़ रहे होंगे लेकिन सबकी अपनी अपनी लड़ाई भी होगी। तभी सवाल है कि अपनी अपनी लड़ाइयों में क्या ये नेता कामयाब होंगे और सब अपने अपने इलाके में मोदी को रोक पाएंगे? यह तब हो सकता है, जब ‘इंडिया’ के नेता राष्ट्रीय चुनाव को क्षेत्रीय बना दें।

इस लिहाज से यह विपक्ष के तमाम दिग्गज नेताओं की परीक्षा वाला चुनाव है। ज्यादातर दिग्गज नेताओं का यह आखिरी चुनाव भी होगा। यह तय मानना चाहिए कि सोनिया गांधी, शरद पवार, मल्लिकार्जुन खड़गे, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद आदि नेता 2029 के लोकसभा चुनाव में कोई प्लेयर नहीं होंगे। एमके स्टालिन 75 साल से ज्यादा उम्र के होंगे और ममता बनर्जी भी 75 साल की होने वाली होंगी। उम्र के साथ साथ इनकी राजनीति भी ढलान पर होगी। सो, इन सभी दिग्गज नेताओं के लिए 2024 का चुनाव आखिरी मौका है कि वे अपनी ताकत दिखाएं।

इस चुनाव में इन नेताओं की कामयाबी इस पर निर्भर करेगी कि वे अपने असर वाले राज्य में चुनाव को क्या मोड़ देते हैं। अगर राष्ट्रीय चुनाव होता है और हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और मजबूत राष्ट्रीय नेतृत्व या विश्वगुरू का नैरेटिव बनता है तो विपक्ष के जीतने की संभावना कम हो जाएगी। लेकिन अगर चुनाव राज्यवार या सीटवार हो जाता है तो नरेंद्र मोदी का एडवांटेज कम हो जाएगा। मिसाल के तौर पर अगर तमिलनाडु में चुनाव तमिल अस्मिता का हो जाता है और राष्ट्रीय मुद्दों की बजाय राज्यपाल आरएन रवि द्वारा किए गए काम मुद्दा बनते हैं तो विपक्ष को फायदा होगा।

पश्चिम बंगाल में इस स्थिति से बचने के लिए ही केंद्र सरकार ने सीवी आनंदा बोस को राज्यपाल बनाया है। वे भले तमिलनाडु के हैं लेकिन बंगाली हैं इसलिए उनके किसी कामकाज के विरोध में तृणमूल कांग्रेस बांग्ला अस्मिता का मुद्दा वैसे नहीं बना सकती है, जैसे 2021 के विधानसभा चुनाव के समय बनाया था। उस समय राज्यपाल जगदीप धनखड़ थे और भाजपा नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चेहरे पर चुनाव लड़ रही थी। लेकिन तब मोदी और शाह को बंगाल का नेता नहीं बनना था।

इस बार मोदी को प्रधानमंत्री बनना है। इसलिए ममता के लिए परीक्षा की घड़ी है कि वे चुनाव को बांग्ला अस्मिता पर ले जा पाती हैं या नहीं। इसी तरह विपक्ष को हर राज्य में अलग अलग मुद्दे पर चुनाव को ले जाना होगा। बिहार में आरक्षण, सामाजिक न्याय और मंडल की राजनीति है तो महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के हिंदुत्व की राजनीति के साथ शरद पवार की मराठा राजनीति का समायोजन है। उधर झारखंड में समावेशी राजनीति करते हुए भी आदिवासी को केंद्र में रखना है। सो, हर राज्य के लिए लड़ाई का अलग स्वरूप होगा और इसी में विपक्ष के दिग्गजों की असली परीक्षा होगी।

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