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अभिव्यक्ति की रक्षा अदालतों के हवाले!

अभिव्यक्ति

अभिव्यक्ति की आजादी को लोकतंत्र की प्राथमिक शर्त के तौर पर स्वीकार किया गया है। लेकिन यह भी हकीकत है कि आजादी मिलने और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था स्थापित होने के बाद भी भारत में पहले दिन से अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में रही है। देश में लोकतंत्र की बुनियाद रखने और उसे मजबूत करने का श्रेय पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को जाता है। लेकिन उनकी सरकार ने ही संविधान अपनाए जाने के एक साल के भीतर जो पहला संशोधन किया वह वाक व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध या शर्तें लगाने के लिए था।

उनकी सरकार ने 1951 में पहला संशोधन किया, जिसमें मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 19 में बदलाव करके बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी पर ‘उचित प्रतिबंध’ लगाए। इस ‘उचित प्रतिबंध’ की व्याख्या हमेशा सरकारों ने अपने हिसाब से की। तभी राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक सद्भाव, व्यक्ति या संस्था के सम्मान आदि की रक्षा के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित करने के लिए ‘उचित प्रतिबंधों’ का इस्तेमाल किया जाता है।

अभिव्यक्ति की आजादी का मुद्दा पिछले कुछ बरसों से बहुत चर्चा में है। पिछले दिनों जब कुणाल कामरा के स्टैंडअप कॉमिक एक्ट को लेकर मुकदमे हुए और उनके स्टूडियो में तोड़फोड़ हुई और बाद में मद्रास हाई कोर्ट से उनको राहत मिली तब फिर अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल सार्वजनिक स्पेस में मंडराने लगा और जब सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस के राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के ऊपर दायर मुकदमा खारिज करते हुए अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर टिप्पणी की तो इस पर नए सिरे से चर्चा शुरू हुई।

जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की बेंच ने कहा, ‘हमारे गणतंत्र के 75 साल बाद भी हम अपने मूल सिद्धांतों पर इतने कमजोर नहीं दिख सकते कि किसी गजल या किसी भी तरह की कला या मनोरंजन जैसे स्टैंडअप कॉमेडी के मात्र पाठ से विभिन्न समुदायों के बीच दुश्मनी या घृणा पैदा होने का आरोप लगाया जा सके। इस तरह के दृष्टिकोण को अपनाने से सार्वजनिक क्षेत्र में विचारों की सभी वैध अभिव्यक्तियां बाधित होंगी, जो एक स्वतंत्र समाज के लिए बहुत जरूरी है’। सर्वोच्च अदालत की इस टिप्पणी का एक संदर्भ है।

अदालत ने इमरान प्रतापगढ़ी के एक वीडियो में सुनाई गई कविता के आधार पर गुजरात में एफआईआर दर्ज किए जाने के संदर्भ में यह टिप्पणी की थी। लेकिन क्या ‘स्टैंडअप कॉमेडी’ का जिक्र अदालत ने अनजाने में किया था?

निश्चित रूप से अदालत के दिमाग में स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा के खिलाफ चल रहे अभियान का मामला भी होगा। गौरतलब है कि कुणाल कामरा के एक स्टैंडअप एक्ट को लेकर उनके ऊपर एक के बाद एक कई मुकदमे दर्ज किए गए हैं। उनको मुंबई पुलिस की ओर से तीन समन जारी किए जा चुके हैं और वे मद्रास हाई कोर्ट से अग्रिम जमानत लेकर गिरफ्तारी से बच रहे हैं। एक दलबदल करने वाले नेता को स्टैंडअप कॉमिक एक्ट में ‘गद्दार’ कहने पर कामरा के खिलाफ मुंबई पुलिस ऐसे पड़ी है, जैसे वे देश और समाज की सुरक्षा के लिए खतरा बन गए हों।

उस नेता की पार्टी के लोगों ने कामरा का स्टूडियो तोड़ दिया और उनके खिलाफ फतवे जारी किए जा रहे हैं। पहले माना जाता था कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश कानून बन जाता है और एक मामले में दिया गया फैसला वैसे ही दूसरे मामलों में अपने आप लागू होता है। लेकिन यहां तो सुप्रीम कोर्ट ने साफतौर पर स्टैंडअप कॉमेडी की आजादी का बचाव किया लेकिन मुंबई पुलिस को इसकी परवाह नहीं है। वह तभी कामरा का पीछा छोड़ेगी, जब स्पष्ट रूप से सुप्रीम कोर्ट उसको ऐसा करने का आदेश दे।

तभी सवाल है कि क्या सुप्रीम कोर्ट ही अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा करेगी और जिन लोगों के ऊपर संविधान को लागू करने की जिम्मेदारी है वे इस आजादी को प्रतिबंधित करते रहेंगे क्योंकि बोलने की आजादी उनकी सत्ता के लिए चुनौती है?

किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती है कि जिसके हाथ में सत्ता हो वह अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को किसी न किसी बहाने से दबा दे या ऐसी स्थितियां पैदा कर दे कि कोई भी बोलने की हिम्मत न कर सके। इसके लिए सरकारें कानूनी स्तर पर उपाय कर रही हैं तो सीधे पुलिस और प्रशासन के जरिए भी संदेश दे रही हैं कि ज्यादा बोले या लिखे तो अंजाम अच्छा नहीं होगा।

अभिव्यक्ति की आजादी और सिविल सोसायटी की भूमिका

खबर है कि सरकार नया डिजिटल कानून लाने जा रही है, जिसमें यह प्रावधान किया जा रहा है कि किसी खोजी पत्रकार ने बहुत खोजबीन करके किसी घोटाले का पता लगाया और उसके दस्तावेज निकाल कर उसका पर्दाफाश किया तो उसके ऊपर पांच सौ करोड़ रुपए तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। भारत में खोजी पत्रकारिता वैसे ही समाप्त हो गई है लेकिन अब भी अगर कोई पत्रकार अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ मिल कर कुछ खोजबीन करता है तो उसे सावधान हो जाने की जरुरत है।

इसी तरह सरकारों ने यह नियम बनाया है कि किसी विरोध, प्रदर्शन में शामिल हुए तो सीसीटीवी की फुटेज से पहचान करके घर पर बुलडोजर चलवाया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट कितनी बार इस बुलडोजर न्याय के खिलाफ आदेश दे चुका है लेकिन सरकारें हर बार नया रास्ता निकाल लेती हैं। उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों वक्फ बोर्ड बिल के खिलाफ जुमे की नमाज के दौरान कुछ नमाजी काली पट्टी बांध कर पहुंचे थे।

खबर है कि राज्य की सरकार ने ऐसे सभी लोगों को नोटिस भेज दिया है। सोचें, काली पट्टी बांध कर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने से ज्यादा संवैधानिक विरोध प्रदर्शन क्या हो सकता है लेकिन राज्य सरकार ने नोटिस भेज कर दो दो लाख रुपए का बॉन्ड भरने को कहा है।

उधर तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने खिलाफ लिखने वालों नंगा करके परेड कराने की बात कही ही थी। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री का कार्टून बनाने पर गिरफ्तारी की खबर भी ज्यादा पुरानी नहीं है। सो, दलबदल करने वाले को ‘गद्दार’ कहने का मामला हो या मुख्यमंत्री का कार्टून बनाने का मामला हो या किसी सरकार की कमियां दिखाने का मामला हो या संसद से पास किसी विधेयक के खिलाफ काली पट्टी बांध कर प्रदर्शन का मामला हो, भारत में कुछ भी निरापद नहीं है। कुछ भी किया तो प्रशासन की गाज गिर सकती है। नोटिस भेजे जा सकते हैं, मुकदमा दर्ज किया जा सकता है, जेल में रखा जा सकता है, घर पर बुलडोजर चलाया जा सकता है!

यह तब तक होता रहेगा, जब तक अभिव्यक्ति की आजादी बचाने के लिए खतरे नहीं उठाए जाएंगे। सिर्फ अदालतों के भरोसे किसी तरह की आजादी की रक्षा नहीं हो सकती है। अदालतें अंतिम रास्ता हैं। उससे पहले लोकतांत्रिक प्रतिरोध का रास्ता होता है। इसमें राजनीतिक दलों से भी बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती है क्योंकि भारत की बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था में एक समय में बहुत सी पार्टियां सत्ता में होती हैं और जो सत्ता में है उसे प्रतिरोध की आवाजों को दबाने के लिए पुलिस तंत्र के इस्तेमाल में कोई आपत्ति नहीं होती है।

इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के लिए सिविल सोसायटी को और आम लोगों को ही आगे आना होगा। उनको अपनी आवाज उठानी होगी। राजनीतिक दलों को मजबूर करना होगा कि वे लोगों की बात सुनें।

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Pic Credit: ANI

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