जम्मू कश्मीर के पहलगाम में धर्म पूछ कर नरसंहार की जो घटना हुई है वह एक गंभीर खतरे का संकेत है। इस खतरे के छोटे छोटे संकेत पहले से मिल रहे थे। पिछले कुछ समय से राज्य में लक्षित हमले बढ़े हैं। बाहरी लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। मजदूरों पर हमले हो रहे हैं। इससे पहले आमतौर पर कहा जाता था कि बाहरी लोग या पर्यटक स्थानीय अर्थव्यवस्था में योगदान देते हैं इसलिए आतंकवादी उन पर हमला नहीं करते हैं। उनको लगता है कि पर्यटकों पर हमले से स्थानीय लोग नाराज होंगे, जिससे उनका समर्थन घटेगा। स्थानीय लोगों के समर्थन के बगैर आतंकवादियों का टिकना मुश्किल है।
तभी सवाल है कि आतंकवादियों ने पर्यटकों पर हमला नहीं करने के अघोषित नियम को क्यों तोड़ा है? क्या अब उनको स्थानीय लोगों के समर्थन की जरुरत नहीं है या स्थानीय लोग भी छोटे छोटे आर्थिक लाभ की बजाय किसी बड़ी योजना के लिए इस तरह की कार्रवाई को जरूरी समझने लगे हैं और मूक समर्थन दे रहे हैं?
जो हो इसे नए दौर की शुरुआत मान सकते हैं। यह भी मानना चाहिए कि यह अनायास नहीं हुआ है। ऐसा नहीं है कि अचानक एक दिन लश्कर ए तैयबा ने फैसला किया कि स्थानीय लोग चाहे जो सोचें, अब पर्यटकों पर हमला करना है और स्थानीय अर्थव्यवस्था को सपोर्ट करने वाले सिस्टम को नष्ट करना है। यह किसी बड़ी और सोची समझी योजना का हिस्सा है, जिसका इशारा पिछले दिनों पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर ने किया था।
उन्होंने हिंदू और मुस्लिम के दो अलग अलग राष्ट्र होने की बात कही थी। उसमें उन्होंने दोनों की रहन सहन, खानपान आदि की विभिन्नता के साथ साथ दोनों की महत्वाकांक्षाएं अलग होने की बात भी कही थी। उन्होंने मुस्लिम समाज की अलग महत्वाकांक्षा की बात नए दौर की नई रणनीति के तहत की है।
पाकिस्तान के सेना प्रमुख के इशारे को समझ कर भारत की खुफिया एजेंसियों को अलर्ट हो जाना चाहिए था। अगर खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां अलर्ट होतीं तो इस घटना को टाला जा सकता था। यह हैरानी की बात है कि लश्कर ए तैयबा से जुड़े द रसिस्टेंस फ्रंट की ओर से बाहरी लोगों पर लक्षित हमले हो रहे हैं लेकिन यह संगठन बड़ा हमला कर सकता है इसका अंदाजा नहीं लगाया गया। यह भी तथ्य सुरक्षा बलों को पता है कि पहले 90 फीसदी आतंकवादी स्थानीय होते थे, जो पर्यटकों पर हमले नहीं करते थे या लक्षित हमले नहीं करते थे, लेकिन अब ज्यादातर आतंकवादी बाहरी हैं, जिनके लिए स्थानीय लोगों की भावनाएं बहुत मैटर नहीं करती हैं।
पहलगाम के जिस इलाके में आतंकवादियों ने हमला किया है वह पर्यटकों की पसंदीद जगह है। बताया जा रहा है कि पिछले चार महीने में करीब 25 लाख लोग पहलगाम पहुंचे, जिसमें से 23 लाख लोग इस घाटी में गए। फिर भी वहां दूर दूर तक सुरक्षा बलों का कोई जवान तैनात नहीं था। आतंकवादी जंगल से निकले और 20 मिनट तक हिंसा का तांडव करते रहे और जंगल में भाग गए। इस दौरान कोई प्रतिरोध नहीं हुआ। एक भी जवाबी फायरिंग नहीं हुई।
सोचें, घाटी में आतंकवादियों के अत्याधुनिक हथियारों से फायरिंग की गूंज कहां तक जा रही होगी फिर भी 20 मिनट तक कोई फोर्स नहीं आई! इसका मतलब है कि दो किलोमीटर के दायरे में कहीं भी सुरक्षा बल के जवान नहीं थे। क्या इसे बड़ी लापरवाही नहीं मानेंगे? क्या खुफिया और सुरक्षा बलों को यह ध्यान नहीं था कि भारत में जब भी कोई हाई प्रोफाइल विजिट होती है तो आतंकवादी उसमें खलल पैदा करने का प्रयास करते हैं।
याद करें कैसे सन 2000 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा के समय चिट्टिसिंहपुरा नरसंहार हुआ था, जिसमें आतंकवादियों ने सिखों की हत्या की थी। अब फिर अमेरिकी उप राष्ट्रपति जेडी वेंस भारत में हैं और आतंकवादियों ने धर्म की पहचान करके नरसंहार कर दिया।
ध्यान रहे जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने और विशेष राज्य का दर्ज समाप्त होने के बाद पूरे देश में कश्मीर को लेकर एक सकारात्मक धारणा बनी। राज्य में सुरक्षा व्यवस्था बेहतर होने और जम्मू कश्मीर के मुख्यधारा में शामिल होने की धारणा भी मजबूत हुई। इस वजह से पर्यटन बढऩे लगा था और सरकार के आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल यानी 2024 में दो करोड़ 30 लाख पर्यटक कश्मीर गए थे।
राज्य में बरसों के बाद चुनाव हुआ और लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ। परंतु इस एक हमले ने पूरी धारणा बदल दी। यह हमला इसी मकसद से किया गया था ताकि घाटी में हालात सामान्य होने की सकारात्मक धारणा को बदला जा सके। शांति का माहौल बिगाड़ा जा सके और लोगों में भय का माहौल पैदा किया जाए। यह स्थिति पाकिस्तान के हुक्मरानों को सूट करती है।
चूंकि पाकिस्तान में हालात लगातार बिगड़ रहे है। आर्थिक तौर पर वह दिवालिया होने की कगार पर है तो भू राजनीतिक स्थितियों के हिसाब से देखें तो उसका बाल्कनाइजेशन स्पष्ट दिख रहा है। बलूचिस्तान से लेकर सिंध तक अलगाववादी आंदोलन तेज हो रहे हैं। पिछले दिनों बलूच विद्रोहियों ने क्वेटा में पाकिस्तान की ट्रेन अगवा करके पाकिस्तानी ऑथोरिटी को चुनौती दी। पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को जेल में बंद करके पाकिस्तान की सत्ता और सेना दोनों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित किया है। इन सब कारणों से ध्यान भटकाने के लिए पाकिस्तानी सेना के पास एकमात्र भावनात्मक मुद्दा कश्मीर का है।
भारत की ओर से भी बार बार पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को छुड़ाने या उसे हासिल करने के दावे किए जा रहे हैं, जिससे पाकिस्तानी सेना को भारत विरोधी कार्रवाई करने का आधार मिलता है। इन सबका मिला जुला असर यह हुआ है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और पाकिस्तानी सुरक्षा बल ज्यादा आक्रामक तरीके से जम्मू कश्मीर में घुसपैठ करा रहे हैं और बाहरी आतंकवादियों को भेज कर घाटी का माहौल बिगाड़ने का प्रयास कर रहे हैं।
अब जरूरी है कि सरकार इस हमले का निर्णायक रूप से जवाब दे। हर बार ऐसे हमले होते हैं तो कहा जाता है कि अब ऐसी घटनाएं दोबारा नहीं होने दी जाएंगी। लेकिन दोबारा भी घटनाएं होती हैं। पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों पर हमले की घटना के बाद यह दूसरी बड़ी घटना है। सवाल है कि क्या पुलवामा घटना की जांच ठीक से हुई? क्या पता चला कि कैसे उतनी मात्रा में विस्फोटक आया और कैसे हमलावर काफिले में शामिल होने में कामयाब रहा? क्या किसी को इस विफलता के लिए जिम्मेदार ठहरा कर कार्रवाई की गई? उलटे इसका राजनीतिक लाभ लिया गया।
अगर पहले की घटनाओं से सबक लेकर खुफिया और सुरक्षा तंत्र को मजबूत किया जाता और आतंकवादियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई होती तो शायद यह नौबत नहीं आती। भारतीय सेना के हवाले रोज खबर आती है कि सीमा पार अब भी आतंकवादियों का नेटवर्क पूरी तरह से कायम है। फिर घुस कर मारने की बातों का क्या मतलब है?
भारत सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि पहलगाम नरसंहार आखिरी है। स्थानीय लोगों का समर्थन उसके साथ है, विश्व बिरादरी भारत के साथ है और सैन्य व तकनीकी रूप से भारत इतना सक्षम है कि वह पड़ोसी देश की सीमा में घुस कर आतंकवादियों का नेटवर्क ध्वस्त कर सके। इसके सिवा जम्मू कश्मीर में शांति, समृद्धि और लोकतंत्र बचाने का दूसरा कोई रास्ता नहीं है।
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