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जम्मू कश्मीर में बिगड़ते हालात

Lashkar terrorist Junaid killed

जम्मू कश्मीर के हालात बदल रहे हैं। बाहरी लोगों पर हमले और हत्या के बाद अब सुरक्षा बलों पर हमले का सिलसिला तेज हो गया है। सिर्फ इस महीने में कम से कम सात जगह आतंकवादियों के साथ सुरक्षा बलों की मुठभेड़ हुई है, जिसमें 12 जवान शहीद हुए हैं। डोडा के डेसा जंगल में सोमवार, 15 जुलाई को आतंकवादियों के हमले में सेना के एक कैप्टेन सहित पांच जवान शहीद हो गए। इससे पहले कुलगाम में दो जगहों पर मुठभेड़ हुई, जिसमें सुरक्षा बलों के दो जवान मारे गए।

इसके बाद कठुआ में सेना की गाड़ी पर आतंकवादियों ने घात लगा कर हमला किया, जिसमें पांच जवान शहीद हो गए। सुरक्षा बलों की ओर से बताया गया कि कठुआ में सेना की गाड़ी पर पहले ग्रेनेड से हमला हुआ और उसके बाद गोलियां चलाई गईं। यह घटना पिछले महीने रियासी में हुई घटना से मिलती जुलती थी, जिसमें आतंकवादियों ने यात्रियों से भरी एक बस के ड्राइवर को गोली मार दी, जिससे बस खाई में गिर गई और नौ लोगों की जान चली गई। माना जा रहा है कि आतंकवादी सेना की गाड़ी भी इसी तरह से खाई में गिराना चाहते थे ताकि अधिकतम नुकसान हो।

भारत सरकार का दावा है कि अनुच्छेद 370 हटने के बाद आतंकवादी घटनाओं में कमी आई है। एक आंकड़े के मुताबिक पांच अगस्त 2016 से चार अगस्त 2019 तक राज्य में नौ सौ आतंकवादी घटनाएं हुई थीं, जिनमें 290 जवान शहीद हुए थे और 191 नागरिकों की जान गई थी। लेकिन अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 समाप्त होने के बाद अगले तीन साल में इसमें गिरावट आई। पांच अगस्त 2019 से चार अगस्त 2022 के बीच 617 आतंकवादी घटनाएं हुईं, जिनमें 174 जवान शहीद हुए और 110 नागरिक मारे गए। लेकिन सवाल है कि क्या शांति काल में दूसरे किसी देश में एक सीमा पर इतने जवान शहीद होते हैं या इतने नागरिक मारे जाते हैं? जब पाकिस्तान के साथ युद्धविराम संधि लागू है और कोई लड़ाई नहीं चल रही है तो छद्म लड़ाई में इतने जवानों की शहादत और आम नागरिकों की मौत निश्चित रूप से बड़ी चिंता का कारण होना चाहिए।

दूसरा सवाल यह है कि पिछले कुछ समय से जब राज्य में शांति बहाली का दावा किया जा रहा था तो अचानक सैन्य बलों पर हमले की घटनाओं में क्यों तेजी आ गई? क्या राज्य में लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू होने और चुनाव की तैयारियों की वजह से ऐसा हो रहा है? गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में जम्मू कश्मीर के नागरिकों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। मतदान के आंकड़े ऐतिहासिक थे। पिछले लगभग चार दशक में इतने ज्यादा लोगों ने वोट नहीं डाले थे। अब अगले दो महीने में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं, जिसके बाद जम्मू कश्मीर को चुनी हुई सरकार मिलेगी। तभी सवाल है कि क्या आतंकवाद को भारत विरोधी नीति के तौर पर इस्तेमाल करने वाले पड़ोसी देश पाकिस्तान को इससे बेचैनी हो रही है कि क्यों जम्मू कश्मीर के लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल हो रहे हैं?

यह संभव है कि पाकिस्तान और उसके समर्थन से फलने फूलने वाले आतंकवादी संगठन एक रणनीति के तौर पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को विफल करने के लिए इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे रहे हों। यह ध्यान रखने की जरुरत है कि पाकिस्तान ने लंबे समय से आतंकवाद को भारत विरोधी कूटनीति का एक हिस्सा बना रखा है और वह इसे छोड़ने वाला नहीं है। फर्क इतना है कि इसका रूप बदल रहा है। पुराने आतंकवादी संगठनों की जगह नए नाम के संगठन आ गए हैं। पुराने आतंकवादी सरगनाओं की जगह नए सरगना आ गए हैं। जैसे डोडा की ताजा घटना की जिम्मेदारी कश्मीर टाइगर्स ने ली है। इसका कारण यह है कि फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स यानी एफएटीएफ की जांच से पाकिस्तान घबराया है और उसे किसी तरह से एफटीएफ की सूची से बाहर निकलना है।

इसलिए वह ये मैसेज बनवा रहा है कि उसने आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई की है और कई समूहों को समाप्त कर दिया है। लेकिन असल में ऐसा नहीं है। सारे आतंकवादी समूह अब भी नाम बदल कर सक्रिय हैं। भारत को इस साजिश को बेनकाब करने का प्रयास करना चाहिए ताकि पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बना रहा। एफएटीएफ का दबाव कम होगा तो पाकिस्तान की वित्तीय मुश्किलें कम होंगी और तब उसकी भारत विरोधी गतिविधियां और तेज हो सकती हैं। पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति का भी एक पहलू है। शरीफ बंधुओं ने सेना के साथ मिल कर सत्ता पर कब्जा कर लिया है और इमरान खान को जेल में बंद कर रखा है, जिससे आवाम में नाराजगी है। इस नाराजगी को कम करने के लिए भी भारत विरोधी गतिविधियां तेज की गई हो सकती हैं।

जम्मू कश्मीर के बदलते सुरक्षा लैंडस्केप का एक बड़ा कारण यह भी है कि भारत इस क्षेत्र में अपनी सीमाओं की सुरक्षा और आंतरिक शांति के लिए पूरी तरह से सैनिक व्यवस्था पर निर्भर है। सुरक्षा और शांति की जो तस्वीर दिखाई जा रही है वह लाखों सैनिकों और अर्धसैनिक बलों की तैनाती की वजह से है। भारत ने पाकिस्तान के साथ कूटनीतिक वार्ता बंद कर रखी है। दोनों देशों के बीच कारोबार बंद है। खेल और फिल्म के जरिए होने वाली सॉफ्ट डिप्लोमेसी भी बंद है। अगर दोनों देशों के आर्थिक हित जुड़े होते तो संभव है कि सुरक्षा के हालात इतने नहीं बिगड़ते। सेना के दम पर पूरे राज्य की सुरक्षा लंबे समय तक सुनिश्चित करना एक मुश्किल काम है।

इसी का एक दूसरा पहलू यह है कि ऐतिहासिक रूप से भारतीय सेना कश्मीर घाटी में तैनात है। इसलिए वहां सुरक्षा बलों की मदद से काफी हद तक सुरक्षा सुनिश्चित की गई है। लेकिन अब आतंकवादी हमलों का निशाना जम्मू का इलाका है। कठुआ, राजौरी में लगातार हमले हो रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि जम्मू रेंज में भी सेना को उसी तरह का बंदोबस्त करना होगा, जैसा कश्मीर घाटी में किया गया है। यह सेना और सुरक्षा बलों पर अतिरिक्त बोझ बढ़ाने वाला होगा।

एक समस्या यह भी है कि लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने पाक अधिकृत कश्मीर यानी पीओके को भारत में मिलाने की चर्चा छेड़ दी। वोट के लिए भाजपा के बड़े नेताओं ने कहा कि मोदी को जिताएं तो छह महीने में पीओके भारत का होगा। इससे पाकिस्तान रक्षात्मक हुआ है और चीन की भी चिंता बढ़ी है। हालांकि सामरिक रूप से यह संभव नहीं है कि भारत युद्ध करके पीओके को अपने में मिलाए लेकिन भाजपा के बड़े नेताओं और कई केंद्रीय मंत्रियों के बयानों ने हालात बिगाड़ दिए। भारत की कूटनीति पाकिस्तान के साथ साथ चीन से भी बंद है या बहुत सीमित हो गई है। चीन के साथ कारोबार जरूर बढ़ रहा है लेकिन कूटनीति नहीं हो रही है। इस वजह से भी उत्तर में सीमा पर भारत पूरी तरह से सामरिक रणनीति पर निर्भर हो गया है।

पिछले अनेक बरसों से दावा किया जा रहा है कि पाकिस्तान एक विफल राष्ट्र है या उसकी आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक व्यवस्था ढह गई है। लेकिन असल में ऐसा नहीं है। पाकिस्तान की व्यवस्था ढह नहीं गई है और ढहनी भी नहीं चाहिए क्योंकि परमाणु शक्ति संपन्न किसी देश की अगर राजनीतिक और सामरिक व्यवस्था ढहती है तो उसका कितना बड़ा खामियाजा दुनिया को भुगतना पड़ सकता है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। इसलिए वहां महंगाई बढ़ रही है या राजनीतिक झगड़े बहुत हैं या सेना ही मालिक है, नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान को बरबाद कर दिया, जैसी भारतीय मीडिया में चलने वाली बहसों का कोई मतलब नहीं है। पाकिस्तान जर्जर हालत में भी भारत के लिए बड़ी सुरक्षा चिंता पैदा किए हुए है। इसलिए सैन्य बल और सामरिक रणनीति के साथ साथ कूटनीति का इस्तेमाल बढ़ाने की जरुरत है।

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