Naya India-Hindi News, Latest Hindi News, Breaking News, Hindi Samachar

नेपाल में क्या संभव है राजशाही?

नेपाल

वैसे तो भारत के पड़ोस में लगभग हर देश अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। किसी न किसी कारण से राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक उथलपुथल मची है। बांग्लादेश में पिछले साल शेख हसीना के तख्तापलट के बाद स्थितियां सामान्य नहीं हो रही हैं। बांग्लादेश गाथा, जिसकी पूरी दुनिया में चर्चा थी वह समाप्त हो गई है। कारोबार ठप्प है और सत्ता पर नियंत्रण की लड़ाई कई स्तरों पर छिड़ी है। कट्टरपंथी संगठन मौके का फायदा उठाने चाहते हैं तो सेना भी सत्ता पर काबिज होने की ताक में है।

श्रीलंका में घनघोर आर्थिक संकट के बाद जो राजनीतिक अस्थिरता हुई थी वह चुनाव के बाद धीरे धीरे सेटल हो रही है। इस बीच म्यांमार में भीषण भूकंप से पूरा देश हिला हुआ है। हजारों लोग मरे हैं और उसी बीच बागियों के खिलाफ सैन्य शासन की बमबारी भी चल रही है। पाकिस्तान में स्थायी राजनीतिक अस्थिरता रही है। पिछले दिनों अचानक बलूच आंदोलन तेज हुआ है। क्वेटा छोड़ कर लगभग समूचे बलूचिस्तान में पाकिस्तान अपना नियंत्रण खो चुका है।

लंबे समय तक पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को जेल में रखने से अलग जनभावना खदबदा रही है। इसी बीच नेपाल में संवैधानविक राजशाही की बहाली का आंदोलन तेज हो गया है।

समूचे उप महाद्वीप में जो उथलपुथल और अस्थिरता है उसमें भारत की भूमिका मोटे तौर पर दर्शक की है या बहुत आंशिक है। भारत किसी तरह का कूटनीतिक या सैन्य हस्तक्षेप नहीं कर रहा है। तभी सवाल है कि नेपाल में राजशाही की बहाली का जो आंदोलन छिड़ा है उसमें भारत क्या कर सकता है और क्या मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था को बदल कर फिर से संवैधानिक राजशाही की बहाली हो सकती है? क्या ज्ञानेंद्र शाह फिर से राजा बन सकते हैं? ये सवाल बहुत अहम हैं। इन पर विचार से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि बाकी दूसरे पड़ोसी देशों के मुकाबले नेपाल के साथ भारत के संबंध दूसरे किस्म के हैं।

वह एकमात्र पड़ोसी देश है, जिसकी सीमा खुली हुई है और जिसके साथ बिना पासपोर्ट, वीजा के आवाजाही की सुविधा है। भारत के हजारों लोगों का कारोबार नेपाल में है और दोनों तरफ के लोगों में बेटी-रोटी का संबंध है। यानी आपस में शादियां होती हैं। दोनों देशों का सांस्कृतिक और धार्मिक जुड़ाव कूटनीतिक और कारोबारी जुड़ाव से ज्यादा गहरा है। यह भी ध्यान रखने की जरुरत है कि पिछले कुछ समय से चीन के दखल की वजह से नेपाल भारत से दूर जाता दिख रहा है।

कई बार नेपाल ने सीमा को लेकर कालापानी, लिपूलेख आदि में भारत के साथ बेवजह का विवाद छेड़ा, कारोबार में बाधा पैदा की और सीमा पर भारतीय किसानों के साथ मारपीट और अपहरण की घटनाएं हुईं।

भारत इन सभी मसलों को कूटनीतिक तरीके से निपटा रहा है लेकिन यह हकीकत भी अपनी जगह है कि संवैधानिक राजशाही समाप्त होने के बाद भारत के संबंध कभी भी नेपाल के साथ वैसे नहीं रहे जैसे पहले थे। दोनों के बीच अविश्वास और तनाव बहुत आम बात है। नेपाल में भारतीय मुद्रा को लेकर पहले जैसी सहजता नहीं है तो कारोबार को लेकर भी अविश्वास है। इसका फायदा चीन ने उठाया और नेपाल में बड़ा निवेश करने लगा।

सरकारों के गठन और राजनीतिक अस्थिरता में बहुत साफ तौर पर चीन का हाथ दिखाई देता है। परंतु इस आधार पर भारत वहां के स्थानीय मामलों में दखल नहीं दे सकता है। अगर भारत किसी तरह से दखल देता दिखाई दिया तो उससे आम नेपाली नागरिकों में अविश्वास और बढ़ेगा। तभी यह सवाल है कि बिना किसी बाहरी मदद के क्या नेपाल में ऐसी स्थितियां बन गई हैं, जिनमें राजशाही की वापसी हो सके? इसकी संभावना नगण्य है। भले आंदोलन कितना भी तीव्र दिख रहा हो लेकिन राजशाही समर्थकों में एकजुटता की कमी और पूर्व राजा की नकारात्मक छवि राजशाही की बहाली के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है।

असल में नेपाल के लोगों की नाराजगी या राजशाही की मांग मुख्य रूप से दो विषयों से जुड़ी है। पहला विषय है राजनीतिक अस्थिरता और दूसरा है भ्रष्टाचार। गौरतलब है कि नेपाल में राजशाही समाप्त होने और लोकतांत्रिक गणतंत्र बहाल होने के बाद से ही जबरदस्त राजनीतिक अस्थिरता है। नेपाल का पूरा राजनीतिक स्पेस कई पार्टियों के बंटा है, जिसकी वजह से हमेशा गठबंधन की सरकार बनती और गिरती रहती है।

संभवतः इसी वजह से हर प्रधानमंत्री स्थिरता बहाल करने और देश के लोगों का भला करने की बजाय अपने भले में लगा रहता है। पिछले 20 साल में जितने भी प्रधानमंत्री बने हैं उनमें से लगभग सभी के ऊपर भ्रष्टाचार के किसी न किसी रूप में आरोप लगे हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण भी जनता का इस शासन व्यवस्था से मोहभंग हुआ है। हालांकि ऐसा नहीं है कि राजशाही पाक साफ रही है। अगर लोकतांत्रिक व्यवस्था ने लोगों को निराश किया है तो राजशाही के बारे में भी आमतौर पर यही धारणा है।

नेपाल में राजशाही बहाली की मांग तेज, विवाद बढ़ा

अगर पिछले 20 साल की सरकारों की बात करें तो मौजूदा प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के ऊपर एक चाय बागान को व्यावसायिक प्लॉट में बदलने के फैसले को लेकर आरोप हैं। इस मामले में उनके ऊपर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मामला चल रहा है। उनसे पहले के तीन पूर्व प्रधानमंत्री माधव नेपाल, बाबूराम भट्टाराई और खिल राज रेग्मी के ऊपर सरकारी जमीन निजी कारोबारियों को देने का मुकदमा चल रहा है। ऐसे ही तीन बार प्रधानमंत्री रहे पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड के खिलाफ सरेंडर करने वाले माओवादियों के लिए मिली रकम में से अरबों रुपए का घोटाला करने के आरोप हैं।

Also Read: नहीं रहे ‘बैटमैन’ वैल किल्मर, एक्टर ने 65 की उम्र में दुनिया को कहा अलविदा

पांच बार प्रधानमंत्री रहे शेर बहादुर देउबा के खिलाफ विमानों की खरीद में कमीशन लेने का आरोप है और उनकी पत्नी भी आरोपों से घिरी हैं। लेकिन नेपाल में चुने हुए शासकों ने 2006 से ही ऐसा नियम बना रखा है कि हर राजनेता को भ्रष्टाचार के मामले में जांच से छूट मिली रहती है। यही कारण है कि देश की जनता में आक्रोश है। वह बार बार सरकार गिरने और नई सरकार बनने, घूम फिर कर चुनिंदा चेहरों को किसी न किसी गठबंधन के जरिए सरकार बना कर सत्ता में आने और भ्रष्टाचार में शामिल होने से उबी हुई है। ऐसे ही आक्रोशित और उबे हुए लोगों के एक समूह ने राजशाही की मांग छेड़ी है।

इस मांग को खुद पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह ने हवा दी। उन्होंने 18 फरवरी को नेपाल के लोकतंत्र दिवस के अवसर पर लोगों को बधाई दी और शांति व विकास के लिए शुभकामना दी। लेकिन साथ ही यह भी कह दिया कि उन्होंने चुपचाप अपना राजपाट इस उम्मीद में छोड़ा था कि इससे नेपाल का भला होगा और लोगों की तरक्की होगी लेकिन ऐसी उम्मीदें पूरी नहीं हुई हैं। इसके आगे उन्होंने कहा कि नेपाल के पारंपरिक समाज में एकता और विविधता बनाए रखने के लिए प्रतीकात्मक राजशाही की आवश्यकता है।

उनके इस बयान के बाद नेपाल में राजशाही की बहाली की मांग तेज हो गई। एक तरफ उनके बयान का समर्थन कर रहे लोगों का समूह है तो दूसरी ओर प्रचंड और माधव कुमार नेपाल ने प्रधानमंत्री ओली से कहा कि वे पूर्व राजा को गिरफ्तार करें। उनकी इस मांग से नाराज लोगों के समूह ने दोनों के घरों पर हमला किया। इस सिलसिले में रैली का नेतृत्व करने वाले 87 साल के नबराज सुबेदी को नजरबंद किया गया है। भीड़ को लेकर संसद की ओर बढ़ने वाले दुर्गा परसाई फरार हैं और पुलिस ने धवल शमशेर राणा, रबिंद्र मिश्रा और स्वागत नेपाल को गिरफ्तार किया है। राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी इस आंदोलन का नेतृत्व कर रही है।

मुश्किल यह है कि पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह की अपनी विश्वसनीयता पुराने राजा वीर विक्रम वीरेंद्र शाह की तरह नहीं है। वीरेंद्र शाह का पूरा परिवार राजमहल की हिंसा में मारा गया था। उस हिंसा का आरोप राजकुमार दीपेंद्र पर लगा लेकिन माना जाता है कि वह ज्ञानेंद्र शाह की साजिश थी। हिंसा के समय ज्ञानेंद्र शाह बाहर थे और उनके परिवार के किसी सदस्य को कुछ नहीं हुआ था। दूसरे भारत में नेपाल की राजशाही की बहाली को लेकर कुछ प्रदर्शन हुए हैं।

योगी आदित्यनाथ के साथ ज्ञानेंद्र शाह की तस्वीरें लेकर लोगों ने प्रदर्शन किए। सोशल मीडिया के जरिए इसकी जानकारी वहां तक पहुंची हैं। इससे भी स्थानीय नेपाली लोगों में नाराजगी है। तभी ऐसा नहीं लग रहा है कि आंदोलन इतने सक्षम हाथों में है कि वह कोई बड़ा बदलाव कर सके। पूर्व राजा की छवि भी ऐसी नहीं है कि आम नेपाली उनके समर्थन में उतरे। ऊपर से राजशाही की बहाली की मांग के पीछे भारत का हाथ होने की धारणा बन रही है। इससे भी कई स्तरों पर इस आंदोलन का विरोध होगा।

Pic Credit : ANI

Exit mobile version