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समलैंगिक विवाहः बर्बादी का रास्ता

आजकल समलैंगिक विवाह पर सर्वोच्च न्यायालय में जमकर बहस चल रही है। दर्जन भर से भी ज्यादा लोगों ने याचिका लगाकर मांग की है कि आदमी और औरत का विवाह तो होता ही रहा है, अब आदमी और आदमी, तथा औरत और औरत के बीच विवाह की अनुमति होनी चाहिए। इस नई पहल पर कोई कानूनी रोक नहीं होनी चाहिए। अपनी मांग के समर्थन में ये लोग कई तर्क देते हैं। जैसे उनका कहना है कि दो व्यक्तियों के विवाह की सबसे बड़ी आत्मा प्रेम है।

यह जरूरी नहीं कि प्रेम आदमी और औरत के बीच ही हो। वह दो आदमियों और दो औरतों के बीच भी हो सकता है। वे दोनों उस प्रेम के बंधन में बंधकर जीवन भर साथ क्यों नहीं रह सकते हैं? इसके अलावा यदि विवाह इसलिए किए जाते हैं कि युवा होने पर स्त्री-पुरूष यौन आनंद भोग सकें तो उनका कहना है कि यौन-सुख तो पुरूष, पुरूष के साथ और स्त्री-स्त्री के साथ भी भोग सकती है। और यौन-सुख भोगने के आजकल ऐसे यांत्रिक तरीके निकल आए हैं कि व्यक्ति उसे अकेले रहकर भी भोग सकता है।

समलैंगिकों का एक तर्क यह भी है कि जिन लोगों को संतानों की जरूरत नहीं है, वे संतानोत्पत्ति के चक्कर में क्यों पड़ें? आजकल पश्चिमी समाज की जीवन-पद्धति इतनी व्यक्तिवादी हो गई है और परिवार नामक संस्था इतनी विखंडित हो गई है कि लोग अपनी ही संतान और संतान अपने ही माता-पिता की कोई परवाह नहीं करती। ऐसी स्थिति में उनका तर्क है कि विषमलिंगी (आदमी-औरत) विवाह करने की जरूरत ही क्या है? समलैंगिकों के ये सब तर्क पश्चिमी जगत की भौतिकवादी और व्यक्तिवादी जीवन-पद्धति की उपज हैं।

इसीलिए आप देखें कि दुनिया के जिन देशों में समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता मिले हैं, उनमें सबसे पहले और सबसे ज्यादा पश्चिम के उपभोक्तावादी संपन्न देश ही हैं। दुनिया के 32 देशों में ऐसे विवाह कानूनी माने जाते हैं। उनमें प्रमुख हैं- अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, ब्राजील, डेनमार्क, द. अफ्रीका, ताइवान आदि। इन देशों की सरकारें इस सवाल पर असमंजस में थीं। इसीलिए 22 देशों में जनमत संग्रह के द्वारा इस नई प्रथा को कानूनी मान्यता मिली। मैंने लिखा था कि अंग्रेज के ज़माने में बने समलैंगिकता कानून में सुधार होना चाहिए।

वह तो सर्वोच्च न्यायालय ने कर दिया और समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर निकाल दिया याने अब दो लोग स्वेच्छा से शारीरिक संबंध बनाएं तो वह जुर्म नहीं माना जाएगा। लेकिन समलैंगिक विवाह को कानूनन सही ठहराना बहुत ही गलत होगा। यह सृष्टि नियम के विरूद्ध होगा। मानव-स्वभाव के विपरीत इस कानून से परिवार नामक संस्था ही नष्ट हो जाएगी। मुक्त-यौन ही सामाजिक प्रथा बन जाएगा। वेश्यावृत्ति सबल हो जाएगी। स्वैराचारी समाज में अराजकता फैल जाएगी और जनसंख्या और संपत्ति-विवाद के नए सिरदर्द खड़े हो जाएंगे। यह व्यक्ति और समाज, दोनों की बर्बादी का मार्ग है।

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