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न्यायिक सक्रियता का नया दौर!

आमतौर पर माना जाता है कि कार्यपालिका के कमजोर होने से सरकार और विधायिका दोनों के कामकाज में न्यायपालिका का दखल बढ़ता है। यह धारणा इसलिए बनी क्योंकि न्यायिक सक्रियता के बारे में पहली बार भारत में जब सुनने को मिला तो वह कमजोर और गठबंधन की सरकारों का दौर था। उसी दौर में जजों की नियुक्ति का कॉलेजियम सिस्टम भी बना था और सरकार के कामकाज में न्यायिक हस्तक्षेप भी बढ़ा था। यह दौर लंबा चला था। नब्बे के दशक से शुरू करके नई सदी के दूसरे दशक के लगभग मध्य था। उस समय तक जब सर्वोच्च अदालत की स्थिति सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता कहने की थी। उसके बाद पिछले करीब नौ साल में, जबसे केंद्र में पूर्ण बहुमत की मजबूत सरकार सत्ता में है, सीबीआई और दूसरी केंद्रीय एजेंसियों ने सत्तारूढ़ दल के विरोधियों के खिलाफ बेहिसाब कार्रवाई की है लेकिन ऐसी कोई टिप्पणी सुनने को नहीं मिली। उलटे सीबीआई, ईडी आदि एजेंसियों की शिकायत लेकर विपक्षी पार्टियां सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं तो उनकी याचिका खारिज कर दी गई। उससे पहले ईडी के अधिकारों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी तो सुप्रीम कोर्ट ने उसके अधिकारों पर भी मुहर लगाई।

इसके बावजूद जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बनने के बाद न्यायिक सक्रियता के एक नए दौर की आहट सुनाई देती है। यह उम्मीद दिख रही है कि संविधान से उच्च न्यायपालिका के लिए जो भूमिका तय की गई वह उसका निर्वहन करने का प्रयास कर रही है। यह भी लग रहा है कि उसका काम सिर्फ सरकार के फैसलों पर मुहर लगाने का नहीं रह गया है। अदालत सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपना स्टैंड तय कर रही है, जो लगभग हर बार सरकार के स्टैंड से अलग दिख रहा है। राजनीति से जुड़े मसलों पर भी सर्वोच्च न्यायपालिका का रुख सरकार के रुख के अनुकूल नहीं है। न्यायपालिका से जुड़े मसलों पर तो सर्वोच्च अदालत का रुख सरकार के साथ लगभग टकराव वाला रहा है। सरकार के तमाम दबाव के बावजूद सुप्रीम कोर्ट न्यायिक मामलों में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ाने की इजाजत नहीं दे रहा है। इसे संविधान के बुनियादी ढांचे से लेकर जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम की बहस तक में देखा जा सकता है।

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने बहुत साफ शब्दों में संविधान के बुनियादी ढांचे के सिद्धांत का बचाव किया। यह संयोग है कि पिछले ही दिनों केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट के सात-छह के बहुमत से आए फैसले के 50 साल पूरे हुए हैं। यह फैसला न्यायिक इतिहास के उन बिरले फैसलों में है, जो पिछले 50 साल से इस देश की शक्तिशाली से शक्तिशाली सरकार को निरंकुश होने से रोकते हैं। इसका बचाव करते हुए चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कुछ दिन पहले कहा था कि बुनियादी ढांचे का सिद्धांत नॉर्थ स्टार यानी ध्रुवतारे की तरह है, जो हर मुश्किल घड़ी में रास्ता दिखाता है। इसी तरह पिछले दिनों केंद्रीय कानून मंत्री के स्तर से कई बार जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर सवाल उठाया गया। उन्होंने इसे भारतीय संविधान के लिए एलियन यानी बिल्कुल अनजान कांसेप्ट करार दिया। वे चाहते थे कि कॉलेजियम में सरकार के प्रतिनिधि को भी जगह मिले। लेकिन चीफ जस्टिस ने बहुत स्पष्ट रूप से अपनी राय रखते हुए कहा कि वे मानते हैं कि कॉलेजियम सिस्टम परफेक्ट नहीं है लेकिन उपलब्ध विकल्पों में से सबसे बेहतर है।

पिछले कुछ महीनों के सुप्रीम कोर्ट के फैसलों और सुनवाइयों के दौरान जजों द्वारा की गई टिप्पणियों को बारीकी से देखें तो एक बदलाव बहुत साफ दिखाई देगा। मिसाल के तौर पर समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के मुद्दे को ले सकते हैं। यह बड़ा सामाजिक मसला है और मानवाधिकार व इंसानी गरिमा से जुड़ा हुआ है। इस पर अभी सुनवाई पूरी नहीं हुई है लेकिन सॉलिसीटर जनरल की दलीलों से साफ है कि सरकार इसके पक्ष में नहीं है। वे बार बार कह रहे हैं कि इस मामले को संसद के ऊपर छोड़ा जाए क्योंकि कानून बनाने का अधिकार संसद को है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने खुल कर कहा है कि अदालत को इस पर विचार नहीं करना चाहिए और इसे संसद के ऊपर छोड़ना चाहिए। दूसरी ओर चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ की टिप्पणियों से ऐसा लग रहा है कि अदालत इस विषय पर लोकप्रिय धारणा या मान्यता से अप्रभावित रहते हुए समलैंगिक लोगों के अधिकार सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही है। पता नहीं इस मामले में फैसला क्या आएगा लेकिन चीफ जस्टिस ने अपनी टिप्पणियों से यह दिखाया है कि वे एक संवेदनशील और इंसानी गरिमा को समझने वाले व्यक्ति हैं, जो इस सिद्धांत में विश्वास करते हैं कि एक व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा भी उसी तरह की जानी चाहिए, जैसे लाखों-करोड़ों लोगों के साझा अधिकार की रक्षा की जाती है। सोशल मीडिया में ट्रोल होने का जोखिम उठा कर चीफ जस्टिस ने इस मामले में टिप्पणियां की हैं।

पिछले कुछ बरसों में सर्वोच्च अदालत की ओर से दिए गए बेहतरीन आदेशों की चर्चा करें तो उसमें एक अहम आदेश पिछले दिनों जस्टिस केएम जोसेफ की बेंच ने दिया। उन्होंने हेट स्पीच से जुड़े मामले में सुनवाई करते हुए देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को आदेश दिया कि हेट स्पीच के मामले में तत्काल एफआईआर दर्ज होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि शिकायत नहीं भी आती है तब भी राज्य स्वतः संज्ञान लेकर हेट स्पीच के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराएंगे और अगर ऐसा करने में देरी होती है तो इसे अदालत की अवमानना माना जाएगा। यह बेहद जरूरी और समय से दिया गया आदेश है। ध्यान रहे पिछले कुछ समय से मीडिया, सोशल मीडिया, सार्वजनिक कार्यक्रमों, राजनीतिक सभाओं आदि में नफरत फैलाने वाली बातें बहुत होने लगी हैं। राजनीतिक व सामाजिक ध्रुवीकरण के लिए हेट स्पीच का एक बेहद असरदार टूल के तौर पर इस्तेमाल होने लगा है। इससे सामाजिक ताना-बाना बिखर रहा है। जिनको राजनीतिक लाभ होना है वह तो हो रहा है लेकिन इससे सामाजिक सौहार्द बिगड़ रहा है और देश की एकता व अखंडता के लिए खतरा पैदा हो रहा है।

भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और भाजपा के सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ महिला पहलवानों की शिकायत पर एफआईआर दर्ज करने और पहलवानों को सुरक्षा देने का फैसला हो या उत्तर प्रदेश में अतीक और अशरफ अहमद के पुलिस हिरासत में मारे जाने के मामले में पुलिस के रवैए पर सवाल उठाने का मामला हो, मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति के सिस्टम को बदल कर तीन सदस्यों के पैनल के जरिए नियुक्ति की व्यवस्था बनाने का फैसला हो या पश्चिम बंगाल में शिक्षक भर्ती घोटाले की सुनवाई कर रहे कोलकाता हाई कोर्ट के जज जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय को इंटरव्यू देने की वजह से केस से हटाने का फैसला हो, लगातार सुप्रीम कोर्ट का रूख जनोन्मुखी रहा है और व्यवस्था का शिकार हो रहे लोगों के प्रति सहानुभूति वाला दिखा है। यह बहुत अच्छी बात है कि न्यायपालिका अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाती दिख रही है। सर्वशक्तिमान सरकार के सामने वह उम्मीद की एक किरण की तरह है। उसी के सहारे चेक एंड बैलेंस की संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था चल सकती है।

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