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भटके विमर्श का नतीजा

इस सारे विवाद की जड़ में पहचान की राजनीति और उस सियासत से जुड़े फायदे हैं। लेकिन ऐसी राजनीति में विभिन्न समुदायों के बीच टकराव खड़ा होना लाजिमी होता है। मणिपुर में वैसा ही टकराव देखने को मिला है।

मणिपुर की घटनाओं ने आखिरकार पूरे देश का ध्यान खींचा है। वैसे तो मणिपुर पूरे अप्रैल में सुलगता रहा, लेकिन राष्ट्रीय मीडिया ने उसकी खबर नहीं ली। जब बीते हफ्ते वहां हिंसा की आग भड़क उठी, तब सबका ध्यान उस ओर गया। जबकि वहां जो हिंसा देखने को मिली है, उसकी जड़ तो मार्च में ही पड़ चुकी थी। राज्य के बहुसंख्यक मैतेयी और आदिवासी समुदाय के बीच तनाव की जड़ें पुरानी है। मार्च में हा ईकोर्ट के एक फैसले ने इस तनाव को और बढ़ा दिया। गैर-आदिवासी मैतेयी समुदाय की आबादी राज्य में करीब 53 फीसदी है। यह समुदाय लंबे अरसे से अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग कर रहा है। मैतेयी समुदाय की दलील है कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने के बाद वे लोग राज्य के पर्वतीय इलाकों में जमीन खरीद सकेंगे। फिलहाल वे लोग मैदानी इलाको में तो जमीन खरीद सकते हैं, लेकिन पर्वतीय इलाको में जमीन खरीदने का उनको अधिकार नहीं है। आदिवासी समुदाय उसकी इस मांग का विरोध करता रहा है।

आदिवासी संगठनों का कहना है कि ऐसा होने पर मैतेयी समुदाय उसकी जमीन और संसाधनों पर कब्जा कर लेगा। आदिवासी संगठनों को चिंता है कि अगर मैतेयी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिल गया को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों से आदिवासियों को वंचित होना पड़ेगा। राज्य की कुल आबादी में 40 फीसदी आदिवासी हैं। इनमें नागा और कुकी समुदाय भी शामिल है। जाहिर है, इस सारे विवाद की जड़ में पहचान की राजनीति और उस सियासत से जुड़े फायदे हैं। लेकिन ऐसी राजनीति में विभिन्न समुदायों के बीच टकराव खड़ा होना लाजिमी होता है। फिलहाल, उसका ही एक नतीजा मणिपुर में देखने को मिला है। उचित ही भाजपा की राजनीति सामुदायिक पहचान केंद्रित राजनीति को इस हाल के लिए एक हद तक जिम्मेदार माना गया है। आरोप है कि पार्टी चुनाव के समय तो तमाम आदिवासी संगठनों के नेताओं को दिल्ली बुलाकर उनसे ऊंचे वादे करती हैं। लेकिन चुनाव बाद उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है। उससे आदिवासी नाराज रहे हैं। हाई कोर्ट के निर्णय के बाद वो नाराजगी उबल पड़ी है।

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