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इसका उपाय क्या है?

क्या इस मामले में भारत लाचार है? दुर्भाग्य से बात ऐसी ही लगती है। स्पष्टतः यह उद्योग-धंधों के शृंखलाबद्ध विकास को ऩजरअंदाज करने का परिणाम है। यह बुनियादी ढांचे के विकास की अनदेखी का भी नतीजा है, जिससे भारतीय उत्पाद महंगे हो जाते हैँ।

भारत और चीन के आपसी व्यापार के जो गुजरे साल के आंकड़े सामने आए हैं, वे सचमुच चिंता बढ़ाने वाले हैँ। इसके मुताबिक बीते वर्ष भारत-चीन का आपसी कारोबार 135.98 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया। यह अपने-आप में चिंता की बात नहीं होती, बशर्ते आयात और निर्यात का अनुपात संतुलित रूप से आगे बढ़ा होता। मगर पिछले साल की कहानी यह रही कि आयात बढ़ा, जबकि निर्यात में गिरावट आई। जबकि उसके पहले ही व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा था। 2022 में स्थिति यह रही कि चीन से भारत ने 118.5 बिलियन डॉलर का आयात किया। जबकि निर्यात 37.9 प्रतिशत गिर कर 17.48 बिलियन डॉलर रह गया। इस रूप में भारत का व्यापार घाटा 101 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया।

इस रूप में चीन ने पिछले साल जो कुल 877 बिलियन डॉलर का ट्रेड सरप्लस हासिल किया, उस वृद्धि में भारत का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। ये तथ्य इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि गुजरे तीन वर्ष में भारत सरकार ने चीन से व्यापार घटाने का इरादा जताया है। देश के जनमत की भी यही मांग रही है। सवाल यह चर्चित रहा है कि जिस समय सीमा पर तनाव बढ़ता चला गया है, उस समय आखिर व्यापार संबंध और प्रगाढ़ होने को कैसे स्वीकार किया जा सकता है? वैसे अगर सीमा पर के हालात की बात छोड़ भी दें, तब भी किन्हीं दो देशों के व्यापार संबंधों में आयात-निर्यात का इतना बड़ा असंतुलन अस्वीकार्य माना जाता है। इस असंतुलन पर एक दशक से अधिक समय से चिंता जताई जा रही है। लेकिन व्यावहारिक स्थिति यह है कि ऐसी चिंताएं सूरत बदलने में निरर्थक साबित हुई हैं। तो क्या इस मामले में भारत लाचार है? दुर्भाग्य से फिलहाल बात ऐसी ही लगती है। स्पष्टतः यह देश में उद्योग-धंधों के शृंखलाबद्ध विकास की नीति को ऩजरअंदाज करने का परिणाम है। यह बुनियादी ढांचे के विकास की अनदेखी का भी नतीजा है, जिससे भारत में उत्पादित होने वाले सामान महंगे हो जाते हैँ। ऐसे में चीन का सस्ता माल कंपनियों और लोगों की पसंद बना रहता है। अब यह साफ है कि अगर ये सूरत बदलनी है, तो देश की आर्थिक नीति में बुनियादी बदलाव लाना होगा।

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