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अवसर है पर कही लम्हे की खता तो नहीं?

जी-20 की अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सुनहरा मौका है। वे अपनी इमेज को दुनिया में वैसे ही चमका सकते है जैसे इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडोकी चमकी। मोदी को गूगल में सर्च करवा कर देखना चाहिए कि जी-20 की अध्यक्षता से जोको विडोडोकी वैश्विक मीडिया में कैसी वाह बनी थी! निश्चित ही मोदी का प्राथमिक लक्ष्य भारत के भीतर डुगडुगी का है। लेकिन देशी भक्तों पर तो पहले से ही जादू है। नरेंद्र मोदी की असल सिद्धी तो तब है जब बीबीसी, लंदन के अखबार, अमेरिका के न्यूयार्क टाईम्स या योरोप, जापान, आस्ट्रेलिया के उन देशों में वाह बने, जहां प्रवासी भारतीय रहते है और जिन देशों से अपने हिंदू राष्ट्र को धंधा, पूंजी, कारोबार, विकास और सुरक्षा मिल सकती है।

तभी मेरा मानना है कि यूक्रेन-रूस युद्ध भारत के लिए अवसरों की खान है। जैसा मैंने पहले कई बार लिखा है कि फरवरी 2022  से शुरू यूक्रेन लड़ाई से दुनिया बदली है। पश्चिमी सभ्यता के दिल-दिमाग में इस्लाम के बाद रूस-चीन का साझा अब इक्कीसवीं सदी की नंबर एक चुनौती है। पूरी सदी अमेरिका बनाम चीन की दो धुरियों पर राजनीति होगी। दो वैश्विक व्यवस्था बनेगी।हां, रूस नहीं बल्कि चीन का मकसद है दुनिया में अमेरिका के वर्चस्व को तोड़ना। चाईनीज सभ्यता अपना वक्त आया मान रही है। हम भारतीयों को समझ नहीं है कि इस एक वर्ष में चीन और रूस ने क्या किया है।दोनों देश अपने वर्चस्व के लिए समानांतर विश्व व्यवस्था, वैश्विक वित्तिय व्यवस्था बना रहे है। तभी दिल्ली में रूसी विदेश मंत्री ने गलत नहीं कहा कि रूस अलग-थलग नहीं हुआ है बल्कि पश्चिम है जो आईसोलेटड हो रहा है और उसे अंत में इसका अहसास होगा।

जरा संयुक्त राष्ट्र में रूस की आलोचना के प्रस्ताव पर 24 फरवरी 2023 कोहुई वोटिंग को बारिकि से समझे। कहने को रूस की निंदा करने वाले 141 देशों का बड़ा आकंडा है। मगर रियलिटी में रूस समर्थक आठ देशों और रूस का लिहाज करते अनुपस्थितहुए 32 देशों की कुल आबादी का हिसाब लगाएं। चीन, रूस के अलावा भारत सहित पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका का लगभग पूरा दक्षिण एसिया, अफ्रीका में इथियोपिया, अल्जीरिया, सूडान से से लेकर दक्षिण अफ्रिका के कुल 14 देश विशाल आबादी वाले है। मोटामोटी पृथ्वी की कुल आबादी में आधी से ज्यादा आबादी के ये 39 देशहै जो चीन-रूस की धुरी से चिंहित है। इसमें 140 करोड लोगों का भारत भी एक है। सोअमेरिका-योरोप के 141 देशों की कुल आबादी कम और रूस-चीन के 39 देशों में ज्यादा।  कल्पना करें यदि इस्लामी देशों की ओआईसी जमात कभी चीन-रूस की धुरी से चिपकी तो क्या होगा!

तभी भारत के लिए अवसर ही अवसर! अमेरिका और योरोप के देश नरेंद्र मोदी की राजनीति से एलर्जी के बावजूद यदि ललोचपों कर रहे है तो ऐसा भारत के आकार के कारण है। एक के बाद एक योरोपीय नेता भारत को पटाने भारत आ रहे है। इनकी कोशिशों से भारत यदि रूस-चीन से छिटकता है तो पृथ्वी की 18 प्रतिशत भारत आबादी का बल और बाजार पुतिन-शी जिन पिंग के साथ नींद में चलता हुआ नहीं होगा।

सो पश्चिम बनाम चीन के वैश्विक संतुलन का पलड़ा भारत की आबादी से ऊपर-नीचे होता है। चीन ने शातिरता से रूस के जरिए भारत को जोड़ रखा है। भारत के तात्कालिक स्वार्थ भी पूरे हो रहे है। बावजूद इसके पश्चिमी देशों की जमात सामूहिक तथावैयक्तिकतौर पर मोदी सरकार को जी-23 की अध्यक्षता, क्वाड़, व्यापार आदि से भारत को अपनी और खींच रहा है। मेरा मानना है सन् 2023 की जी-20 की कूटनीति से पश्चिम फैसला लेगा कि रूस-चीन की संगत में मोदी सरकार कितनी रमी हुई है। जैसे संगत से आदमी की पहचान होती है वैसे देशों की भी होती है। इसलिए यह साल भारत के लिए वह लम्हा है जिससे के फैसले में सदी का भारत सफर बनेगा। कौम, राष्ट्र के जीवन में प्रधानमंत्री तथा सरकारे आती-जाती है लेकिन लम्हे के फैसले देश, कौम की नियति बना देते है। यूएन की वोटिंग से भी नरेंद्र मोदी, जयशंकर ने बूझा नहीं कि यदि ईरान से लेकर पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका मतलब पूरा दक्षिण एसिया रूस-चीन से दबा दिखा और भारत भी उनके साथ तो अर्से से इलाके में चीन के वर्चस्व की चिंता अपने आप साबित होती हुई हैं। अफगानिस्तान व म्यंमार, नेपाल को भी इस लिस्ट में जोडेतो पूरा उपमहाद्वीप चीन की गिरफ्त में। उसके नए उपनिवेश। और भारत उसके साथ नींद में चलता हुआ! क्या मैं गलत हूं?

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