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महज कथा-कहानियाँ नहीं हैं वैदिक आख्यान

आवश्यक नहीं कि कोई कथा सत्य हो तभी महत्वपूर्ण होगी। काल्पनिक या प्रतीकात्मक कथा भी यदि‍जीवन मूल्यों सत्य का बोध कराती है तो वह कालजयी शाश्वत हो जाती है। वैदिक आख्‍यान इसी श्रेणी में आते हैं। यह आख्यान, मनुष्य और ईश्वर, प्रकृति, पशु-पक्षी, पहाड़-जंगल, देवी-देवताओं के बीच के सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं और अंत में इस निष्कर्ष पर ले जाते हैं कि सभी में एक ही ब्रह्म की चेतना व्याप्त है। इसीलिए यह कालजयी हैं और सामान्य कथा-कहानियों से भिन्न हैं। बौद्धिक रूप से इन आख्यानों के गहरे अर्थ निकाले जा सकते हैं परंतु इनकी विशेषता यह है कि यह सामान्य लोगों में बोध उत्पन्न करने में सक्षम हैं

कथा-कहानियों के प्रति लोगों को सदैव से रुचि रही है। सामान्यत: कहानियों में श्रृंख्‍लाबद्ध घटनाएँ होती हैं जिनका उद्देश्य कोई घटना बताना, मनोरंजन करना, रहस्य-रोमांच, मनोभावों का वर्णन आदि होता हैं। हम ऐसी कहानियाँ पढ़ते हैं, आनन्द लेते हैं और भूल जाते हैं। ऐसी असंख्य अल्पजीवी कथा-कहानियाँ हमारे चारों ओर बिखरी पड़ी हैं। इसके विपरीत वैदिक साहित्य में मिलने वाली कथाएँ कालजयी हैं जिन्हें आख्यान कहते हैं। कुछ लोग इन कथाओं को काल्पनिक, गल्प या मिथक मानते हैं। आवश्यक नहीं कि कोई कथा सत्य हो तभी महत्वपूर्ण होगी। काल्पनिक या प्रतीकात्मक कथा भी यदि‍जीवन मूल्यों व सत्य का बोध कराती है तो वह कालजयी व शाश्वत हो जाती है। वैदिक आख्यान इसी श्रेणी में आते हैं।

वेदों को समझाने के लिए ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् के रूप में उनका विस्तार किया गया। मनुष्य कठिन विषय को रोचक कथाओं के माध्यम से शीघ्र समझ लेता है। इसलिए वैदिक संहिता में भी गहरे ज्ञान के बीच-बीच में सरस कथाएँ या आख्यान मिलते हैं । इन आख्यानों की संख्या ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों में बढ़ती गई है और इनका पूर्ण विस्तार पुराणों में हुआ है जो कथाओं से भरे हैं। बाद में इतिहास ग्रंथ जैसे महाभारत व रामायण की रचना का उद्देश्य भी कथाओं के माध्यम से वेदों के सिद्धांत आम जनता तक पहुँचाना था।

इन आख्यानों की भाषा अत्यंत सरल परंतु गहरी व बहु स्तरीय है। इनमें प्रवेश करते ही अनेक भाव खुलते जाते हैं। यह बहुत संक्षिप्त, यहाँ तक कि कुछ तो केवल कुछ पंक्तियों के हैं वनाटकीय उतार-चढ़ाव से युक्त हैं। यह कथाएँ घटनाओं की रेखीय श्रृंख्ला नहीं है अर्थात एक के बाद दूसरी घटना और फिर समाप्त हो जाना नहीं है। यह घटनाओं का वृत्त भी नहीं है कि जहाँ से कहानी शुरू हुई थी अंत में वहीं लौट आए। यह तो ऐसा खुला वृत्‍त है जैसे शंख में होते हैं । शंख का हर वृत्त (वलय) आगे के बड़े वृत्त में समाता जाता है। हर कथा में आगे विचार करने और बढ़ने की संभावना मौजूद रहती है। इसलिए 3 या 4 पंक्तियों का आख्यान भी विस्तार में बड़ी कथा बन जाती है। उदाहरण के लिए दुष्यन्त और शकुन्तला के प्रणय के आख्‍यान के आधार पर अभिज्ञान शाकुन्तलम नाटक की रचना की गई। इसी प्रकार के आख्यान हमारे काव्य, साहित्य और नाट्य शास्त्र के आधार बने। छान्दोग्य उपनिषद् के घोर अंगिरस और देवकी पुत्र कृष्ण का संवाद ही भगवद्गीता की आधारशिला बना। इस संवाद को आत्मसात करकेही कृष्ण की बालजीवन की लीलाओं के रहस्य, उनके बाद के जीवन की अनासक्त कर्म श्रृंख्ला और अंत में जरा नामक बहेलिये के तीर से आहत होकर महाप्रयाण करने के रहस्यों को समझा जा सकता है। दूसरे शब्दों में कृष्ण के जीवन की यह कथाएँ हमें कृष्ण की शिक्षाओं को समझाने में सहायता करती हैं।

इन आख्यानों में सनातनधर्म के जीवन के मूल मंत्रों को क्रमबद्ध ढ़ंग से समझाया गया है। बृहदारण्य उपनिषद् (5.2.1-3) में एक कथा आती है कि प्रजापति ने अपनी तीन संतानों- देव, मनुष्य और असुर – को एक शब्द का उपदेश दिया। वह शब्द था ‘द’। प्रजापति ने पूछा कि तुमने क्या समझा । तो देवताओं ने कहा कि ‘द’का अर्थ है ‘दमन करो। मनुष्यों ने कहा ‘द’का अर्थ है ‘दान करो’और असुरों ने कहा कि उन्होंने ‘द’ का अर्थ समझा कि ‘दया करो’। प्रजापति बोले तुम तीनों ने ठीक समझा। मनुष्य की दुर्बलता है उसका ममत्व, आसक्ति। दान करने से उस वस्तु से ममत्व टूटता है, यह भाव आता है कि इस वस्तु पर मेरे अलावा भी अन्य लोगों का अधिकार है। देवता की योनि भोगयोनि है। कोई भी भोग केवल स्वयं के स्वार्थ के लिए करना कमजोरी है। इसका दमन करना ही उन्नयन का मार्ग है। असुरों का स्वभाव है दूसरों को दु:ख देकर प्रसन्न होना । यह उनकी कमजोरी है। दया करने से यह कमजोरी दूर होती है। इस प्रकार तीनों के मनोविज्ञान का सूक्ष्म विश्लेषण करके उनकी उन्नति के मार्ग बताए गए और यह संभावना पैदा की गई कि इसी प्रकार हम अन्य लोगों के मनोविज्ञान को समझ कर उसके अनुरूप व्यवहार कर सकें।

एक वैदिक कथा कहती है कि ब्रह्मा अपनी पुत्री सरस्वती पर ही मोहित हो गये। इससे रुष्ट होकर रुद्र ने उनका सिर काट दिया। प्रथम दृष्टया यह कथा बड़ा धक्‍का देती है कि ब्रह्मा जिसे हम सष्टि का निर्माता मानते हैं अपनी ही पुत्री पर आसक्त हो गया। इसका उद्देश्य पाठक या श्रोता को धक्का देना ही है ताकि वह समझ सके कि हमारी रचना दूसरों के लिए होती है, स्वयं के लिए नहीं। जब रचनाकार स्वयं अपनी रचना का उपयोग करना चाहे तो वह उसी प्रकार वर्जित विषय है जैसे पिता का पुत्री के प्रति आसक्त होना। बौद्धिक रूप से इन आख्यानों के गहरे अर्थ निकाले जा सकते हैं परंतु इनकी विशेषता यह है कि यह सामान्य लोगों में बोध उत्पन्न करने में सक्षम हैं। प्रह्लाद की रक्षा के लिए विष्णु का नृसिंह के रूप में खंभा फाड़कर निकल आने की कथा श्रोता के हृदय में इस वैदिक घोषणा का बोध करा देती है कि कण-कण में ईश्‍वर व्याप्त है। यह उपदेश देना कि कण-कण में ईश्वर है, जानकारी देने जैसा है जबकि कथा के माध्यम से इस पर विश्‍वास हो जाना बोध है।

वेद में कथा है कि विश्वामित्र, राजा सुदास के यज्ञ में मिली दक्षिणा रथों में लादकर अपने आश्रम जा रहे थे परंतु रास्ते में विपाशा (व्‍यास) और शतद्रु (शतलज) नदियॉं थीं। उन्होंने नदियों से मार्ग माँगा। पर नदियाँ चुप रह गईं क्योंकि एक ओर इन्द्रके आदेश से उन्हेंनिरंतर बहती रहना था वहीं विश्वामित्र की प्रार्थना को मानने का अर्थ था कि वह अपने प्रवाह को रोककर विश्‍वामित्र को रास्ता दें। विश्वामित्र ने प्रार्थना की कि तुम दोनों माता से भी बढ़कर ममतामयी हो – सिन्धुंमातृमाम् । मॉं का संबोधन सुनकर नदियों ने कहा कि जैसे ममतामयी माँ अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिए झुक जाती है वैसे ही हम तुम्हारे लिए कम जल वाली हो जाती हैं जिससे तुम अपने रथ सहित हमें पार कर सको।  यह कथा बोध कराती है कि नदियाँ केवल जड़ नहीं हैं उनमें भी चेतना है। छांदोग्य उपनिषद् में कथा है कि अष्टावक्र जब राजा जनक के दरबार में पहुँचे तो उनकी शारीरिक विकलांगता के कारण उनका उपहास हुआ। परंतु अष्टावक्र की विद्वता और ज्ञान के कारण स्वयं राजा जनक ने उन्हें गुरु तुल्य सम्मान दिया। यह कथा व्यक्ति को मात्र उसके शरीर के स्थान पर उसके ज्ञान और चरित्र के आधार पर परखने की सीख देती है। ऋग्वेद में राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहित व इंद्र के संवाद की मात्र पाँच श्लोको की कथा का हर श्लोक‘चरैवेति’पर समाप्त होता है और बताता है कि हर परिस्थिति में चलते रहना ही जीवन है। बैठे रहने और आलस्य करने से किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता।

कठोपनिषद में नचिकेता की प्रसिद्ध कथा है। उनके पिता महर्षि वाजश्रवा ने विशाल यज्ञ किया और दान के नाम पर बूढ़ी, अनुपयोगी गायें दीं। नचिकेता ने पिता से पूछा कि दान तो प्रिय और उपयोगी वस्तु का करना चाहिए फिर वह बूढ़ी, अनुपयोगी गायें क्यों दे रहे हैं ? उसने जानना चाहा कि वह पिता का प्रिय पुत्र है तो उसे किसको दान करेंगे? पिता ने क्रोध में कहा तुझे यम को दान करूँगा। तब नचिकेता यम के पास गया और हठ पूर्वक उनसे मृत्यु के रहस्य की शिक्षा ली। ऐसी कथाएँ ज्ञान प्राप्ति के लिए जिज्ञासा और दृढ़निश्‍चय की अनिवार्यता बताती हैं और कहती हैं कि धर्म के नाम प्रचलित पाखंड का विरोध करना चाहिए भले ही सामने पिता ही क्यों न हो। छांदोग्‍य उपनिषद (1.10-11) में आख्यान है कि कुरुदेशनिवासी उषस्ति नामक ब्राह्मण अकाल पड़नेपर भोजन की तलाश में भटकने लगा। क्षुधा से इतनापीडि़त हो गया कि प्राण निकलने की स्थिति आ गई । उसे जूठे उबले उड़द और जूठा पानी मिला। उषस्ति ने जूठे उड़द तो खा लिये पर पानी नहीं पिया और कहा कि प्राणरक्षाआवश्‍यक थी इसलिए जूठे उड़द खा लिये परंतु पानी तो अन्‍यत्र भी उपलब्ध है इसलिए उसमें समझौता नहीं करुँगा। यह कथा आपत्‍काल में विवेकयुक्त निर्णय लेने की सीख देती है। परम्पराओं की लीक पीटना सदैव आवश्यक नहीं है।

सीधी सरल भाषा में गहरासत्य हृदय में उतार देना और आध्यात्मिक तत्व का बोध करा देना इन आख्यानों का उद्देश्‍य है। इन कथाओं ने समाज को जीवन के नैतिक आदर्श दिये हैं, ऐसी दृष्टि दी है जो भले-बुरे, न्याय-अन्याय का ज्ञान कराती है और जीवन के कठिन समय में मार्ग दिखाती है। यह आख्‍यान, मनुष्य और ईश्वर, प्रकृति, पशु-पक्षी, पहाड़-जंगल, देवी-देवताओं के बीच के सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं और अंत में इस निष्‍कर्ष पर ले जाते हैं कि सभी में एक ही ब्रह्म की चेतना व्याप्त है। इसीलिए यह कालजयी हैं और सामान्य कथा-कहानियों से भिन्न हैं। यदि हम इन्हें केवल ऐतिहासिक, सामाजिक पृष्ठभूमि में तर्क की कसौटी पर कसते रहेंगे और काल्पनिक या वास्तविक होने की बौद्धिक कसरत में उलझे रहेंगे तो इनके समग्र बोध और उनमें निहित आध्यात्मिक सौन्दर्य से वंचित हो जाएँगे।

( लेखक आईएएस अधिकारी तथा धर्म, दर्शन और अध्यात्म के चिंतक  हैं)

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