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उपसंहारः मध्यकाल की ओर!

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हम हिंदुओं की नियति है कि आगे बढ़ते हैं, फिर पीछे लौटते हैं। आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाते हैं और पुरातन में लौटते हैं! उदारवाद अपनाते हैं अनुदारवादी कन्वर्ट होते हैं। विकसित भारत का सपना बताते हैं और सौ करोड़ लोगों को खैरात बांटते दिखते हैं। एकता-अखंडता की रक्षा के वीर योद्धाओं, छप्पन इंची छाती का हल्ला होता है लेकिन उन्हीं से विलाप-प्रलाप में सुनते हैं कि बंटोंगे तो कटोगे! अंततः सारे दुखिया “दुश्मन” बनाम “दुश्मन” के इतिहास द्वंद्व में खौलते हुए! और मध्यकाल लौटता हुआ।

 हम हिंदू चाहते क्या है? -6

वह (हिंदू राजवंश का आखिरी शासक सुहादेव) “एक राजा रूप में राक्षस” था, जिसने ‘उन्नीस साल, तीन महीने और पच्चीस दिनों में कश्मीर को खा लिया“।

यह लाइन कश्मीर के इतिहास की ‘दूसरी राजतंरगिणी’ के लेखक जोनराज की है। जोनराज ने अपने गुरू कल्हण की लेखनी के आखिरी दिनों के सन् 1150 के समय का विवरण देते हुए लिखा था कि कश्मीर में तब गृहयुद्ध के अलावा और कुछ नहीं था, और ‘जलने, लूटने और लड़ने में कुशल’, दमारा (स्थानीय सामंती लड़ाका), देश के लिए एक आतंक थे। केंद्रीय (सत्ता) अधिकार समाप्त हो गया था, और राजा असहाय व अक्षम हो रहे थे।….

अंत में राजा सुहदेव का (1301-1320) वह शासन था, जिसमें बकौल जोनराज… राजा ने ‘कश्मीर को खा लिया’। असल बात है इस्लाम ने कश्मीर को खाया। नोट करें सन् 1320 में राजा सुहादेव मरा तो सिर्फ 19 वर्षों में ही कश्मीर में मुस्लिम सुल्तानशाही (1339) स्थापित हो गई। फिर केवल 74 वर्षों की अवधि में कश्मीर धर्मांतरित हो मुस्लिम बहुल रियासत था। ज्ञात इतिहास की पांच हजार साल पुरानी भव्य सनातन सभ्यता संस्कृति (हिंदू, बौद्ध, शैव-वैष्णव सभी) का घाटी में नामोनिशान मिटा! कश्मीर ‘लघु ईरान’ बना। और वह धर्मांतरण बिना तलवार के था। मतलब मेहमूद गजनी जैसे किसी आक्रामक सुल्तान के बिना!

इसलिए इतिहासकार जोनराज का निचोड़ था- “एक राजा रूप के राक्षस” ने ‘उन्नीस साल, तीन महीने और पच्चीस दिनों में कश्मीर को खा लिया।

हां, जिम्मेवार हिंदू थे। सुहादेव इसलिए राक्षस था क्योंकि उसने अपने घर में, सनातनियों के बीच में झगड़े पैदा किए। राजा की बुद्धि, दृष्टि, व्यवहार, रीति-नीति में कुछ भी सम्यक, विवेक नहीं था। उसके नेतृत्व में श्रीनगर के कुलीन वर्ग, मंत्रियों, दरबार में इस्लाम की नासमझी थी। कोई इस्लाम के मंतव्य, उद्देश्यों, उसके दीर्घकालीन मिशन की समझ, जिद्द, जुनून की दूरदृष्टि में दो धर्मों के फर्क को बूझ नहीं पाया था।

परिणाम इतिहास है। सन् 1339 से समकालीन इतिहास तक हिंदुओं के लगातार धर्मांतरण, उनके कश्मीर घाटी से भागने का भयावह अनुभव है। तभी मैं कई बार कश्मीरी पंडित जवाहलाल नेहरू की बुद्धि पर विचार करते हुए सोचता हूं भला वे कैसे इस खामोख्याली में थे कि मुसलमान और हिंदू सहअस्तित्व में रह सकते हैं? विशेषकर तब जब इतिहास खुद दोनों के लिए दो मुल्क बनाने का निर्णय करते हुए था! तब भी धर्म आधारित 1947 के इतिहास निर्णय को लात मारना!

और नतीजा क्या? खुद नेहरू का तथा देश व उपमहाद्वीप का क्या अनुभव है? एक के बाद एक युद्ध तथा लगातार खूनखराबा। इतना ही नहीं भारत में हिंदुओं ने आज गांधी-नेहरू की रहनुमाई की उस कथित सेकुलर हिंदू जमात को लात मारी हुई है, जिसने कौमी एकता के पांच दशक तराने गा कर हिंदू वितृष्णा पैदा की। तभी सिलसिला अब उसी जर्जर दशा में, देश गृहयुद्ध की और जाता हुआ है जैसा कश्मीर के आखिरी हिंदू शासक राजा सुहादेव के समय में हुआ था। आजाद भारत का हर नेतृत्व स्वतंत्र राष्ट्र के अभूतपूर्व मौके में भी भारत की कोई चारित्रिक, नैतिक, संकल्पवान प्रकृति नहीं बना पाया जैसे जापान, इजराइल या हर सभ्य विकसित देश की विशेष प्रकृति और पहचान है!

हिंदू आज उस ‘दुश्मन’ को चिन्हित कर सुलगा हुआ है, जिसमें प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री सब उन्हें कह रहे हैं, बंटोंगे तो कटोगे! ऐसा तब है जबकि खुद की पहले सेकुलर बनाम कम्यनुल, देशद्रोही बनाम देशभक्त की राजनीति में पहले हिंदुओं को बांटने की नीति है। फिर हिंदू को सिख, ईसाई से बांटने की राजनीति है तो जातीय आधार पर बौद्ध, दलित, आदिवासी, मराठा, ब्राह्मण, ओबीसी, अति ओबीसी की असंख्य विभाजकताओं का अलग पोषण है। इन सबके ऊपर फिर इतिहास के स्थायी ‘दुश्मन’ तथा उसकी ‘प्रकृति और डीएनए’ से पानीपत की लड़ाई है।

सचमुच इतनी विभाजकता और गृहयुद्ध की ऐसी स्थितियां तो राजा सुहादेव के समय में भी नहीं थीं। तभी तो उसका इतिहास है कि- उसने ‘उन्नीस साल, तीन महीने और पच्चीस दिनों में कश्मीर को खा लिया’। और उस सुहादेव के परिप्रेक्ष्य में सोचें कि नरेंद्र मोदी अपना इतिहास क्या बनाते हुए हैं? इक्कीसवीं सदी का अंत होते होते भारत क्या होगा?

समय पीछे नहीं लौटता है लेकिन इतिहास की पुनरावृत्ति होती है। असंख्य उदाहरण हैं। भारत का इतिहास प्रमाणों से भरा हुआ है। इसलिए स्वतंत्र भारत में हर शासक ने या तो इतिहास में झूठ भरा या अर्धसत्य लिखवाया। सेकुलर आइडिया ऑफ इंडिया हो या हिंदू आइडिया ऑफ इंडिया, दोनों ने बेईमान इतिहास से या तो संशय बनवा लोगों को बहलाया या विलाप और प्रलाप में लोगों को भड़काया। मगर समय सत्य का रथ है इसलिए वह निर्मम है और वह झूठ को सदैव सबक देता है।

तभी हम हिंदुओं की नियति है कि आगे बढ़ते हैं, फिर पीछे लौटते हैं। आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाते हैं और पुरातन में लौटते हैं! उदारवाद अपनाते है अनुदारवादी कन्वर्ट होते हैं। विकसित भारत का सपना बताते हैं और सौ करोड़ लोगों को खैरात बांटते दिखते हैं। एकता-अखंडता की रक्षा के वीर योद्धाओं, छप्पन इंची छाती का हल्ला होता है लेकिन उन्हीं से विलाप-प्रलाप में सुनते हैं कि बंटोंगे तो कटोगे! अंततः सारे दुखिया “दुश्मन” बनाम “दुश्मन” के इतिहास द्वंद्व में खौलते हुए! और मध्यकाल लौटता हुआ। वही बिखराव, वही अनुभव जो सन् 712 से ले कर इस समकालीन इतिहास में इसलिए फिर नियतिगत है क्योंकि भारत की राजनीति वापिस विभिन्न प्रकृतियों के “दुश्मन” पैदा करती हुई है।

‘दुश्मन’ चिन्हित है इसलिए आगे का सिनेरियो खुलता हुआ है। हिंदुओं के आगे विकल्प केवल राजनीतिक अखाड़े में ताकत दिखाना है। हिंदू और हिंदू धर्म की ‘प्रकृति और डीएनए’ इस्लाम जैसा नहीं है जो वे इतिहास का बदला इतिहास के तरीकों से लें। यदि सत्ता सुरक्षित रहे तो हिंदू राजा हो या प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री सभी सर्व धर्म समभाव, सबका साथ-सबका विकास का राग आलापते रहेंगे। अपने वैभव, अहंकार में मगन रहेंगे। लेकिन दुश्मन की सेना दिल्ली के दरवाजे पहुंची तो प्रजा में हांका लगा कर गांव-गांव से भीड़ इकठ्ठी कर वानर सेना बनाएंगे जो खैबर पार से आए हजार-डेढ़ हजार इस्लामी हमलावरों के आगे घुटने टेकेगी या भाग खड़ी होगी। अब जमाना लोकतंत्र और चुनाव का है तो मतदाताओं को समाजवाद दिखा कर, रेवड़ियां बांट कर, गरीबी हटाओ या बंटोंगे तो कटोगे के हुंकारों से प्रधानमंत्री अपने दिव्य अवतार पर ठप्पा लगाता है और फिर सर्वज्ञता के अभिमान में भारत को बुद्धि से पैदल बना देता है। देश में इतिहास, वर्तमान और भविष्य की ईमानदार दृष्टि रंच मात्र बची हुई नहीं होती। झूठमेव जयते राजधर्म और लोकधर्म बना होता है!

मतलब वही स्थिति जो कश्मीर के हिंदू लोहरवंश के राजाओं की थी। मेरा मानना है जैसे आज दुनिया ईसाई, हान, इस्लाम की महाशक्तियों में सभ्यताओं के संघर्ष का सिनेरियो लिए हुए है वैसा समय हिंदुस्तान में पहले भी था। खैबर और बोलन दर्रे से इस्लाम का हिंदुस्तान आना सभ्यतागत हमला था। ‘विधर्मी’ तो हिंदू हक्के बक्के थे। एक के बाद एक आंधी आई तो हिंदू राजाओं, धर्माचायों, पंडितों, व्यापारियों व कुलीन वर्ग में एक भी दफा यह प्रयास नहीं हुआ कि राजनीतिक-धार्मिक-सामाजिक समग्रता में हम विचार मंथन करें, बौद्धिक अनुष्ठान हो ताकि बूझ पाएं कि विधर्मियों (इस्लाम) का उद्देश्य क्या है? इनसे मुकाबले में अपनी राजनीति, धर्मनीति और सामाजिक व्यवस्था कैसे दुरूस्त हो, किन परिवर्तनों की जरूरत है? विधर्मी के आगे अपने तौर-तरीकों में राज्य, धर्म और समाज कैसे पुनर्गठित हो? लेकिन तब भी हर राजा, हर पंडित, हर व्यापारी अपने-अपने निज स्वार्थ, अपनी जाति अनुसार व्यवहार में बेफिक्र था। इस अंधविश्वास, झूठ में जी रहा था कि हमें अवतारी राजा प्राप्त है तो उसके प्रताप से मलेच्छ भाग खड़े होंगे। राजा खुद जहां दैवीय अवतार के गुमान में होता था वही पंडित, ब्राह्मण अपने मारण मंत्र, उचाटन मंत्र तथा विचलन मंत्रों से ख्यालों में था कि गजनी की क्या मजाल जो सोमनाथ का ध्वंस कर सके। वैसे ही जैसे श्रीनगर में श्रीदुर्गा मंदिर के पंडित का ख्याल था। उधर हिंदू व्यापारी हमलवारों के साथ घोड़े, केसर आदि के धंधों के लालच में मुनाफा तौलते हुए थे तो बाकी जातियां अपने-अपने बाड़े में दीन दुनिया से बेखबर थी। उनकी जिंदगी भूख और असमानताओं में वक्त काटते हुए थी तो सुल्तान को सूफी ने कहा कि खानकाह बना कर इन्हें रोटी खिलाओ तो उन्होंने लपक खैरात-धर्मादे की रोटियां खाईं। उनको क्या फर्क पड़ना था जो वे हिंदू रहें या मुसलमान!

क्या उन जैसी ही स्थितियों में स्वतंत्र भारत नहीं है? नरेंद्र मोदी दैवीय अवतार हैं। सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान हैं। पंडित-ब्राह्मण मंदिरों के निर्माण से गद्गद् हैं। अडानी-अंबानियों व्यापारियों को बांग्लादेश, ईरान, चीन सबसे मुनाफे का मौका है और जनता या तो राशन और रेवड़ियों से मगन है या फिर बेगारी-बेरोजगारी और आकांक्षाओं की भूख में आरक्षण का जातीय गृहयुद्ध बनाए हुए है। दूसरी तरफ ‘दुश्मन’? घात लगाए हुए है। समय का इंतजार कर रहा है। चीन की हान सभ्यता अपनी सैनिक ताकत के साथ सीमा पर तथा आर्थिक बल से भारत की छाती पर सवार है। सो, चीन-रूस-ईरान के साझे बनाम पश्चिम, या इस्लाम बनाम बाकी सभ्यताओं जैसे किसी भी भावी सिनेरियो में भारत को उसी नियति की ओर बढ़ना है जो मध्यकाल में थी।

मगर हां, इतिहास की पुनरावृत्ति होना सात सौ साल बाद की आधुनिकता में है तो जाहिर है हूबहू पुनरावृत्ति नहीं होगी। नई शक्ल, नए अनुभव होंगे।

सवाल है हिंदुओं की नियति ऐसी क्योंकर है? मेरा मानना है इसलिए क्योंकि सनातन धर्म वैयक्तिक जीवन पद्धति का जीवन है। वह मूर्तिवादी है, व्यक्तिवादी है। हर आस्थावान का अपना एक इष्ट है। अपनी आध्यात्मिकता है। निज जीवन की वैयक्तिक सिद्धि, स्वार्थ, लाभ, पुण्य, मुक्ति, मोक्ष और नियति का धर्म है। एक हिसाब से यह खूबी इंसान की मानवीय जरूरत है। मानव यदि अपने जीवन के अस्तित्व की गरिमा का स्वंय मालिक हो, वह अपना सतपथ स्वंय बनाए, उसका जीना उसकी निज पद्धति से हो तो वह आदर्श स्थिति है। वह क्यों सांगठनिक-सामुदायिक भीड़ के धर्म का जेहाद पाले हुए हो!

लेकिन दूसरा पहलू और दुष्परिणाम है कि जो हर सनातनी, उसका हर कुनबा, हर जात अपने लिए भागती है। तभी उसमें कौम, नस्ल की चेतना और राज्येंद्रियां नहीं हैं। हर व्यक्ति निज ख्याल, इलहाम, अंधविश्वासों, मुंगेरीलाल सपनों में जीता है। जिन्ना ने कौम, धर्म की जिद्द में अपना नेतृत्व और पाकिस्तान बनाया। वही गांधी और नेहरू ने निज इलहाम में निज महानता के पुण्य में निर्णय लिए। यही सचमुच स्वतंत्र भारत के तमाम नेताओं और कुलीन लोगों के व्यवहारों का कुल अनुभव है! मैं सर्वज्ञ, मैं सच्चा और इसमें मेरा क्या है और क्या नहीं!

सोचें, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ पर। दोनों सर्वज्ञ हैं। इनके लिए न कैबिनेट का अर्थ है और न पार्टी का और न विधानसभा या संसद तथा कोई भी ऐसी संस्था की जरूरत है, जिससे राष्ट्र चेतना और मुद्दों, लक्ष्यों का सामूहिक सच्चा, ईमानदार, बौद्धिक बहस या यह सत्य ज्ञात हो सके कि हम स्वस्थ हैं या जर्जर। समाज, धर्म फौलादी होता हुआ है या खोखला?

मगर हिंदू की सत्ता के चरित्र और प्रकृति का कमाल है जो सत्ता के पारस ने राजा, प्रधानमंत्री को छुआ नहीं की वह हार्वर्ड याकि ज्ञान का अपने को पितामह मान बैठता है। यह मनोभाव नेहरू का था। इंदिरा गांधी का था तो मोदी और योगी से लेकर कश्मीर के सुहादेव या जयचंद, पृथ्वीराज चौहान सभी में था। सभी निज अश्वमेध यज्ञ, अहंकार की जिद्द के शासक थे। सबकी एप्रोच थी मैं ही सही। और जो मेरे से असहमत है वह मेरा और देश का दुश्मन है! जो मेरे काम का नहीं, मेरे लिए उपयोगी नहीं वह किसी काम का नहीं। उसे वनवास भेजो। उसे अछूत बनाओ!

तभी पृथ्वी पर हिंदू वह नस्ल, वह सभ्यता है, जिसका गुलामी का अंतहीन इतिहास तब से बार-बार रिपीट है जबसे सांगठनिक-सामुदायिक धर्मों का उदय है। इसलिए क्योंकि हिंदू धर्म और सभ्यता के पास सामूहिक-सामुदायिक बुनावट में धर्म, कौम रक्षा की बौद्धिक, संकल्प दृष्टि न पहले थी और न आज है। साथ ही कलेजा भी नहीं है!

लब्बोलुआब है कि हिंदुओं की राज्येंद्रियों का मालिक अवतार है। अश्वमेध यज्ञ का कर्ता राजा है। वह वही करेगा जो उसके राजा होने के अहंकार में निहित है। जो मध्यकाल और आधुनिक काल (आखिर इसी में पाकिस्तान सहित उपमहाद्वीप में चार इस्लामी देश निर्मित हुए) का सत्य है

यह सत्य भी गांधी-नेहरू परिवार और मोदी-संघ परिवार के लिए बेमानी है। इसलिए क्योंकि मतलब वर्तमान से है। उसके लिए सत्ता में होना ही सब कुछ है। इतिहास चाहे जो लिखे, कौम, देश, धर्म जले या मरे उसे भविष्य से क्या लेना। आज जो सत्ता है बस वह चलती रहे। कश्मीर के राजा सुहादेव की भी यह परम प्राप्ति थी जो वह ‘उन्नीस साल, तीन महीने और पच्चीस दिन’ शासक था। सोचें, यदि नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ या संघ परिवार या गांधी-नेहरू परिवार में कोई उस अवधि का रिकॉर्ड तोड़ दे तो वह अपने आपको कितना भाग्यशाली समझेगा! यह न वह सोचेगा, न पीढ़ियां सोचेंगी, न हिंदू सोचेगा कि उससे देश का क्या हुआ, कश्मीर का क्या हुआ!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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